प्राण
प्राण द्रव्य का उर्जा रूप है यह हमें सूर्य से प्राप्त होता है एवं हमारे संपूर्ण शरीर में व्याप्त है इसके बिना किसी भी प्रकार का जीवन संभव नहीं। शरीर से प्राण के निकल जाने पर मनुष्य या किसी भी प्राणी की मृत्यु हो जाती है प्राण द्वारा शरीर को छोड़ देने पर कोई भी प्राणी एक सेकिंड भी जीवित नहीं रह सकता। प्राण शरीर के स्थाई अवयवों जैसे हृदय फेफड़े गुर्दे पाचन संस्थान मष्तिष्क सहित हमारे संपूर्ण शरीर को क्रियाशील बनाये रखता है। यह शरीर के भीतर पांच भागों में विभक्त होकर जीवन भर अपना काम करता है। प्राण को हम जीवनी शक्ति भी कहते हैं। हमारे शरीर में पांच मुखय प्राण और पांच उप प्राण होते हैं।
मुखय प्राण:- 1. प्राण 2. अपान 3. समान 4. उदान 5. व्यान।
उपप्राण:- 1. नाग 2. कूर्म 3. कृकल 4. देवदत्त 5. धनन्जय।
मुखय प्राण और उप प्राण मिलकर एक कोन की आकृति बनाकर घूमते हुए शरीर में गतिशील रहते हैं, इस कोन की आकृति के उपरी भाग को मुखय प्राण एवं निचले भाग को उप प्राण कहते हैं। मुख्य प्राणका कार्य है आवश्यक उर्जा तत्व को ग्रहण कर शरीर के स्थाई अवयवों का संचालन करन, एवं उपप्राण का कार्य है अनावश्यक उर्जा तत्वों का उत्सर्जन करना। प्राण को क्रियाशील बने रहने के लिए आक्सीजन की आवश्यकता होती है जिसे प्राणी श्वास के द्वारा प्राप्त करते हैं। श्वास के माध्यम से ली गई हवा से हमारे फेफड़े आक्सीजन को अवशोषित कर नर्व के माध्यम से संपूर्ण शरीर में पहुंचाते हैं जो कि प्राण को क्रियाशील बनाए रखती है। प्राण और आक्सीजन एक दूसरे के पूरक हैं, शरीर को क्रियाशील रखने के लिए इन दोनों की आवश्यकता होती है किसी एक के न होने पर प्राणी की मृत्यु हो जाती है, आक्सीजन के बिना तो मनुष्य पांच से सात मिनिट तक जीवित रह सकता है परंतु प्राण के बिना एक सेकिंड भी जीवित नहीं रह सकता। प्राण और आक्सीजन शरीर को उसी प्रकार चलाते हैं जिस प्रकार कि तेल और अग्नि एक वाहन के इंजन को चलाते हैं। वाहन के सिलेन्डर में स्पार्क द्वारा अग्नि उतपन्न की जाती है जो पंप द्वारा सिलेन्डर में भेजे गए तेल को जलाकर उर्जा उतपन्न कर पिस्टन को चलाती है इसमें अकेला तेल या अकेली अग्नि पिस्टन को नहीं चला सकते। इसी प्रकार हमारे शरीर में आक्सीजन ईंधन है एवं प्राण अग्नि है, प्राण आक्सीजन को जलाकर उर्जा उतपन्न कर हमारे शरीर के स्थाई अवयवों को संचालित करता है यहां भी अकेला प्राण या अकेली आक्सीजन शरीर को नहीं चला सकते।
एक बार इंजन को बंद कर देने पर इसे पुनः चालू किया जा सकता है परंतु एक बार मृत्यु हो जाने पर प्राणी को पुनः जीवित नहीं किया जा सकता क्योंकि विज्ञान अभी प्राण को पुनः शरीर में प्रविष्ट कराकर पुनः क्रियाशील कराने या प्राण को शरीर में रोके रखने की कोई विधि विकसित नहीं कर पाया है, भविष्य में विज्ञान शरीर में प्राण को रोके रखने की विधि विकसित कर सकता है परंतु इससे कोई विशेष फायदा नहीं होगा क्योंकि प्राण शरीर को तभी छोड़़ता है जब प्राण के द्वारा संपूर्ण प्रयास करने के बाद भी शरीर के अंग काम नहीं कर पाते या अंग भंग होने से प्राण की क्रिया प्रणाली में वाधा उतपन्न हो जाती है। इतना फायदा अवश्य हो सकता है कि डाक्टर को शरीर को ठीक करने के लिए ज्यादा समय मिल जाएगा। यदि विज्ञान शरीर में प्राण को पुनः प्रविष्ट कराने का विधि भी विकसित कर लेता है तब इससे भी कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि शरीर से प्राण के निकलते ही शरीर के तरंग उर्जा और वायु रूप भी नष्ट हो जाते हैं एवं शरीर में जो स्वतंत्र अवश्था में मुखय आत्माऐं हैं वह भी शरीर से बाहर निकल जातीं हैं, सिर्फ ठोस, द्रव एवं कुछ वायु रूप ही शेष बच जाता है वह भी मृत्यु के कुछ घंटों बाद सड़ने गलने लगता है, फिर भी यदि विज्ञान पुनः जीवित करना सीख लेता है तब जीवित किया गया व्यक्ति वह नहीं होगा जिसकी मृत्यु हुई थी क्योंकि मृत्यु के साथ मन भी नष्ट हो जाता है अतः पुनः जीवित होने वाला व्यक्ति अपने पिछले जीवन को भूल चुका होगा। इसलिए शरीर में प्राण को रोके रखने की विधि ही ज्यादा सही होगी। प्राणायाम के द्वारा प्राण को मस्तिष्क में रोककर रखा जा सकता है परंतु यह काम पूर्ण स्वस्थ एवं पहुंचे हुए योगी ही कई वर्षों के अभ्यास के बाद कर सकते हैं। कोई बीमार या सामान्य सांसारिक व्यक्ति इस कार्य को नहीं कर सकता परंतु यह बिलकुल सत्य है कि प्राण को लम्बे समय तक मस्तिष्क में रोका जा सकता है हमारे पूर्वज इस प्रक्रिया को अच्छी तरह जानते थे इसके लिए विज्ञान को नई तकनीक विकसित करनी होगी।
हमारे शरीर में मुखय प्राण मस्तिष्क में क्रियाशील रहता है बाकी चार प्राण क्रमशः शरीर के निचले भागों में रहते हैं। मस्तिष्क में जब तक मुख्य प्राण रहता है तब तक मनुष्य की मृत्यु नहीं होती भले ही उसकी हृदय गति श्वांस एवं नाड़ी बंद हो गई हो इसलिए मृत्यु को प्रमाणित करने के लिए डाक्टर मस्तिष्क का परीक्षण करते हैं। कभी कभी समाचार पत्रों के माध्यम से भी सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति मृत्यु के कुछ देर बाद पुनः जीवित हो गया इसका कारण यही होता है कि हृदय गति श्वांस आदि बंद हो जाने के बाद भी मुख्य प्राण मस्तिष्क में रुका रहता है, एवं कुछ समय बाद पुनः शरीर में सक्रिय हो जाता है एक बार मुख्य प्राण के निकल जाने बाद किसी भी तरह व्यक्ति जीवित नहीं हो सकता। चूंकि प्राण को क्रियाशील रहने के लिए आक्सीजन की आवश्यकता होती है ऐसी स्थिति में श्वांस बंद हो जाने पर मस्तिष्क त्वचा से आक्सीजन अवशोषित करने लगता है, इसलिए किसी की भी मृत्यु होने पर डाक्टर से अंतिम संस्कार के पूर्व मस्तिष्क का परीक्षण करवा लेना चाहिए। जब मनुष्य इस स्थिति में पहुंच जाता है अर्थात मुख्य प्राण मस्तिष्क में रुका रहता है तब मन का शरीर एवं बाहरी संसार से संपर्क टूट जाता है तब मन अंतरमुखी होकर आत्मा में स्थित हो जाता है और इस समय मनुष्य अलौकिक अनुभव करने लगता है। ऐसा संयोग से कभी कभी लाखों में एक के साथ होता है।
प्राणायाम के अभ्यास द्वारा मस्तिष्क को त्वचा से आक्सीजन अवशोषित करने में सक्षम बना सकते हैं। मस्तिष्क को त्वचा से आक्सीजन अवशोषित करने योग्य बनाने के लिए कई वर्षों तक निश्चित विधि द्वारा प्राणायाम का अभ्यास करना पड़ता है। जब हमारा मस्तिष्क त्वचा से आक्सीजन अवशोषित करने हेतु अभ्यस्त हो जाता है तब मनुष्य बिना सांस लिए मुख्य प्राण को मस्तिष्क में रोककर लम्बे समय तक जीवित रह सकता है एवं पुनः प्राण को शरीर में क्रियाशील कर सामान्य अवश्था में आ सकता है इसके लिए जहां वह बैठा है उस जगह आक्सीजन का होना आवश्यक है यदि उसे ऐसी जगह बंद कर दिया जाय जहां आक्सीजन न हो तब उसकी मृत्यु हो जाएगी। इसे आध्यात्म की भाषा में समाधि कहते हैं।
हमारा स्वास्थ शरीर में प्राण की प्रक्रिया के उपर निर्भर है। प्राण के वलवान रहने पर ही मनुष्य वलवान रहता है एवं प्राण से ही व्यक्ति के चेहरे पर चमक एवं शरीर में स्फूर्ति रहती है प्राणवान व्यक्ति दूसरों को जल्दी अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। प्राण के कमजोर होने पर हमारा शरीर भी कमजोर होने लगता है एवं बीमारियों से लड़ने या कोई भी कार्य करने की क्षमता कम होने लगती है इससे हमारे शरीर के भीतरी अवयय भी बीमारी का शिकार होकर कमजोर होने लगते हैं, जब हमारे शरीर के अंग काम करने योग्य नहीं रह जाते तब प्राण शरीर को छोड़ देता है और प्राणी की मृत्यु हो जाती है।
प्राणायाम प्राण पर नियंत्रण प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है। प्राणियों का जीवन सांसों की संख्या के उपर निर्भर है जो प्राणी प्रति मिनट जितनी ज्यादा सांसें लेता है उसकी आयु उतनी ही कम होती है एवं जो जितनी कम सांसे लेता है उसकी आयु उतनी अधिक होती है। हम लम्बी और गहरी सांस लेकर सांसों की संख्या को कम कर सकते हैं। शरीर में प्राण की एक सामान्य गति होती है इस गति में थोड़ा सा भी पखिर्तन होने पर हमारे स्वास्थ पर तुरंत प्रभाव पड़ता है।
हम हवा से स्वांस द्वारा जो वायु लेते हैं वह हमारे फेफड़ों में पहुंचती है हमारे शरीर में दायीं एवं वांयी ओर दो फेफड़े होते हैं इनमें लाखों कोशिकाएं होती है ये अंगूर के गुच्छों के समान दिखते हैं इन कोशिकाओं से नर्वस् निकलकर हमारे शरीर के रोम रोम तक जातीं है ये नर्वस् फेफड़ों की कोशिकाओं द्वारा अवशोषित की गई आक्सीजन को हमारे संपूर्ण शरीर को पहुंचातीं है जिससे प्राण क्रिया करता है हमारे फेफड़ों की यह विशेषता है कि यदि हमारी पचहत्तर प्रतिशत कोशिकाएं खराब हो जाएं तब भी मनुष्य जीवित रहता है एवं साधारण दैनिक कार्य भी कर सकता है इस स्थिति में वह कोई मेहनत का कार्य नहीं कर सकता। कोशिकाएं खराब होने से नर्वस् को पूरे शरीर में आक्सीजन पहुंचाने में अधिक समय लगता है इससे प्राण को पर्याप्त आक्सीजन नहीं मिलने से प्राण की गति बढ़ती है एवं प्राण कमजोर होने लगता है जिससे हमारा शरीर भी कमजोर होने लगता है एवं बीमारियों से लड़ने की क्षमता कम होने लगती है। प्राणायाम से मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है क्योंकि हम प्रति मिनिट सांसों की संख्या जितनी कम करेंगे हमारी आयु उतनी बढ़ जाएगी या जितने समय बिना स्वांस लिए समाधि की अवश्था में रहेंगे उतनी हमारी आयु बढ़ेगी।
प्राणायाम एक जटिल तकनीक है इसे योग्य एवं प्रशिक्षित व्यक्ति से ही सीखना चाहिए। सोलह वर्ष से कम आयु का कोई भी व्यक्ति इसके लिए पात्र नहीं है। सोलह वर्ष से कम आयु वालों से कभी प्राणायाम नहीं करवाना चाहिए।
प्राणायाम के चार चरण होते हैं।
1. पूरक 2. अन्तः कुम्भक 3. रेचक 4. वाह्य कुम्भक।
स्वांस के द्वारा हवा फेफड़ों में भरने की क्रिया को पूरक कहते हैं। फेफड़ों में हवा को कुछ देर रोक कर रखने की क्रिया को अन्तः कुम्भक कहते हैं। स्वांस बाहर छोड़ने की क्रिया को रेचक कहते हैं। फेफड़ों को खाली कर कुछ देर बिना स्वांस लिए रहने की क्रिया को वाह्य कुम्भक कहते हैं। इन चारों क्रियाओं को मिलाकर एक प्राणायाम कहा जाता है। इन चारों क्रियाओं को आठ बार करने को प्राणायाम का एक चक्र कहते हैं। साधारण अवश्था में जब हम स्वांस लेते हैं तब हमारे फेफड़ों की कोशिकाएं पूरी नहीं भर पातीं एक पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति के फेफड़ों में साधारण अवश्था में लगभग छः सौ घन सेन्टीमीटर हवा ही पहुंचती है, यदि हमारे फेफड़ों को पूरी तरह भरा जाय तब तीन हजार घन सेन्टीमीटर हवा को फेफड़ों में भरा जा सकता है अर्थात सामान्य से पांच गुना। कोशिकाओं के पूरा नहीं भरने पर घीरे घीरे इनमें कफ जमा होने लगता है एवं इनकी दीवारें कड़ी होने लगतीं हैं जिससे इनकी आक्सीजन अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है एवं बाद में स्वांस संबंधी बीमारियां उत्पन्न होतीं हैं इसलिए मनुष्य को हमेशा लम्बी एवं गहरी स्वांस लेने की आदत डालना चाहिए।
रेचक एवं पूरक क्रिया कोई भी व्यक्ति कर सकता है परंतु इसे फेफड़ों की क्षमता एवं सामर्थ से अधिक न किया जाए, कुम्भक क्रिया हमेशा योग्य प्रशिक्षित व्यक्ति से ही सीखना चाहिए क्योंकि इससे मस्तिष्क में आक्सीजन की कमी होती है जो कि मस्तिष्क एवं शरीर के लिए नुकसानदायक हो सकती है फेफड़ों की क्षमता एवं व्यक्ति के स्वास्थ के आधार पर इसकी एक निश्चित समय तालिका बनाई जाती है उस के अनुसार प्राणायाम की चारों क्रियाओं के समय को घीरे धीरे बढ़ाया जाता है जिससे प्रति मिनिट स्वांस लेने की संख्या कम होती है। लगातार कई वर्षों तक अभ्यास करते रहने से मस्तिष्क धीरे धीरे त्वचा से आक्सीजन अवशोषित करने में अभ्यस्त होने लगता है तब मनुष्य समाधि के लिए पात्र बनता है या प्राण को मस्तिष्क में रोककर लम्बे समय तक बिना स्वांस लिए रह सकता है। प्राण की गति कम करने से मन की चंचलता भी कम होती है इससे एकाग्र होने या ध्यान करने में भी सहायता मिलती है।
प्राणायाम कई प्रकार का होता है जिनमें निम्न प्रमुख हैं।
1. साधारण या उज्जायी प्रणायाम
2. विलोम प्राणायाम
3. भ्रामरी प्राणायाम
4. मूर्च्छा प्राणायाम
5. प्लाविनी प्राणायाम
6. आंगुलिक प्राणायाम
7. भत्रिका प्राणायाम
8. कपालभाति प्राणायाम
9. शीतली प्राणायाम
10. शीतकारी प्राणायाम
11. अनुलोम प्राणायाम
12. प्रतिलोम प्राणायाम
13. सूर्यभेदन प्राणायाम
14. चंद्रभेदन प्राणायाम
15. नाड़ी शोधन प्राणायाम आदि।
उपरोक्त में मूर्च्छा प्राणायाम और प्लाविनी प्राणायाम अब प्रचलन में नहीं हैं।
हमारे शरीर में वायु और प्राण नर्वस् अर्थात नाड़ियों के माध्यम से गतिशील रहते हैं इन्हें हम शरीर की वायरिंग कह सकते हैं। हमारे शरीर में लाखों नाड़ियां होती है। धार्मिक ग्रथों के अनुसार शरीर में 101 मुख्य नाड़ियां होतीं हैं इनमें प्रत्येक नाड़ी में से 72 हजार नाड़ियां निकलकर संपूर्ण शरीर अर्थात पैर के तलवों से सिर के सर्वोच्च स्थान एवं शरीर के रोम रोम तक जातीं है। ये सभी नाड़ियां रीड़ की हड्डी के बीच में सुरक्षित रहकर यहां से शरीर के अलग अलग भागों में जातीं हैं। रीड़ की हड्डी में ये नाड़ियां मस्तिष्क में उपर ब्रह्मरंध एवं नीचे कुंडलनी तक जातीं हैं, उपर ब्रह्मरंध एवं नीचे कुंडलनी तक तीन नाड़ियां ही पहुंचतीं हैं जिन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना कहते हैं। इड़ा का शरीर में अंतिम स्थान बायां नासारंध्र एवं पिगला का अतिम स्थान दायां नासारंध्र है, सिर का सर्वोच्च अर्थात ब्रह्मरंध्र सुषुम्ना का अंतिम स्थान है। इड़ा को चंद्र एवं पिंगला को सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। इसमें इड़ा का कार्य शीतलन, पिंगला का कार्य ज्वलन एवं सुषुम्ना का कार्य सत्व है। इन नाड़ियों की कार्यप्रणाली में बाधा उतपन्न होने से कई बीमारियां जैसे लकवा, अंगों का शून्य होना, वात रोग, दर्द आदि उतपन्न होते हैं। नाड़ियों की कार्य प्रणाली को आसन के द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
हमारी रीड़ में 33 डिस्क होते हैं जिससे रीड़ में लचीलापन बना रहता है। इन डिस्क के बीच में सभी नाड़ियां सुरक्षित रहतीं हैं, यह डिस्क एक्सल पर लगी वियरिंग के समान कार्य करते हैं इनकी गति से नाड़ियों में कोई खिचाव या दबाव उतपन्न नहीं होता चूंकि वियरिंग तो सिर्फ आगे पीछे ही घूम सकती है परंतु डिस्क चार दिशाओं अर्थात उपर नीचे दायें वायें गति कर सकते हैं परंतु इनकी गति कुछ डिग्री तक ही सीमित रहती है। इसके बीच में आठ चक्र होते हैं जिन्हें विज्ञान की भाषा में ग्लेंडस् कहते हैं। ये ग्लेंडस् शरीर के लिए हार्मोन्स का उत्सर्जन करते हैं इनके सही काम न करने से मानसिक एवं शारीरिक विकृतियां उतपन्न होतीं है
हमारा शरीर द्रव्य के पांच रूपों अर्थात ठोस, द्रव, वायु, उर्जा एवं तरंग रूप से बना हुआ है। इन पांच रूपों को नियंत्रित करने के लिए निम्न पांच अलग अलग साधन होते हैं।
1. तरंग रूप अर्थात मन को नियंत्रित करने के लिए - ध्यान।
आत्मा भी हमारे शरीर में तरंग रूप है परंतु इसे नियंत्रित करने की कोई आवश्यकता नहीं होती न ही कोई इसे नियंत्रित कर सकता है। यह स्वतः नियंत्रित होती है, क्योंकि मन जैसी क्रिया करता है आत्मा उसी के अनुसार प्रतिक्रिया करती है।
2. उर्जा रूप अर्थात प्राण को नियंत्रित करने के लिए - प्राणायाम।
3. वायु रूप को नियंत्रित करने के लिए - आसन।
4. द्रव रूप को नियंत्रित करने के लिए - उपवास पंचकर्म आदि। इसे प्रशिक्षित आयुर्वेदिक डॉक्टर ही करवा सकते हैं।
5. ठोस रूप को नियंत्रित करने के लिए - व्यायाम। पैदल चलना, तैरना, साइकिल चलाना सर्वोत्तम एवं सर्व सुलभ व्यायाम हैं।
यदि मनुष्य सिर्फ मन पर नियंत्रित रखना सीख ले तब भी वह पूर्ण स्वस्थ सुखी एवं दीर्धायु जीवन व्यतीत कर सकता है। मन पर नियंत्रण न रहने से बाकी चार रूपों पर नियंत्रण का प्रयास करने से कोई विशेष फायदा नहीं होगा।
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