RELIGION & SCIENCE (Hea...

Text selection Lock by Hindi Blog Tips

Friday, November 11, 2011

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार - 8


ब्रह्मांड की संरचना

                  ब्रह्मांड की उतपत्ति निराकार ईश्वर से होती है। आदि काल में ब्रह्मांड शून्य था अर्थात इसमें निराकार ईश्वर के अलावा कुछ भी नहीं था। ईश्वर ने जब एक से अनेक होने की इच्छा की तब ईश्वर ने निराकार से साकार होना शुरु किया। चूंकि ब्रह्मांड में कोई भी खाली जगह नहीं होती सब जगह ईश्वर व्याप्त रहता है। अतः जब ईश्वर निराकार से साकार होने के लिए अपना आकार बढ़ाता है तब ब्रह्मांड में असीमित दबाव उतपन्न होता है जिससे असीमित उर्जा उतपन्न होती है बाद में दबाव के कारण इसमें विस्फोट होने लगते हैं जिससे सूर्य तारों ग्रहों उपग्रहों आदि का निर्माण होता है। ब्रह्मांड की उतपत्ति के संबंध में विज्ञान एवं धर्म के प्रायः एक ही सिद्धांत है, चूंकि विज्ञान का कथन है कि पूरे ब्रह्मांड की उतपत्ति एक बार में हुई परंतु ब्रह्मांड में रोज नए तारों का जन्म एवं पुराने तारों की मृत्यु होती ही रहती हैं यह क्रिया आदि काल से चल रही है यह विज्ञान भी जानता है विज्ञान ने यह भी पता कर लिया है कि ब्रह्मांड फैल रहा है। यह उसी प्रकार होता रहता है, जिस प्रकार पृथ्वी पर प्राणियों का जन्म एवं मृत्यु होती रहती है। तारों या सूर्य में विस्फोट के समय जो पिंड अलग होकर अंतरिक्ष में फैल जाते हैं वह ग्रह एवं उपग्रह बन जाते हैं एवं गुरुत्वाकर्षण के कारण अपने सूर्य का चक्कर लगाने लगते हैं। चूंकि सूर्य स्वयं उर्जा उत्सर्जित करने में सक्षम होते हैं परंतु विस्फोट से अलग हुए पिंड स्वयं उर्जा उत्सर्जित नहीं कर सकते अतः यह धीरे धीरे ठंडे होकर उर्जा रूप से वायु, द्रव और ठोस रूप में बदलने लगते हैं। हमारी पृथ्वी भी इसी प्रकार का आदि काल में सूर्य से अलग हुआ एक पिंड है। सूर्य सहित सूर्य से अलग हुए सभी ग्रह हमारी पृथ्वी पर जलवायु, प्राणियों, वनस्पतियों आदि के जीवन के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इनमें से चंद्रमा या किसी ग्रह के न होने से पृथ्वी पर प्राणियों का जीवन संभव नहीं है। मनुष्य जीवन सहित पृथ्वी पर होने वाले सभी क्रिया कलापों पर इनका प्रभाव होता है, इसलिए सूर्य सहित सभी ग्रहों की देवता के रूप में पूजा आराधना की जाती है। यह हम सब को जान लेना चाहिए कि मनुष्य एवं अन्य प्राणियों सहित हमारे सौर मंडल में जो कुछ भी है वह सूर्य का ही अंश है।

                    सूर्य के जीवनकाल में पृथ्वी की कई बार पुनर्संरचना हो जाती है, इसे प्रलय कहते हैं। प्रलय भी दो प्रकार का होता है।

1. प्रलय। इसमें पृथ्वी की पुनर्संरचना होती है।

2. महाप्रलय। इसमें सूर्य सहित पूरे सौरमंडल के ग्रह एवं उपग्रहों का अंत हो जाता है एवं फिर इनका पुनर्जन्म नहीं होता।

प्रलयः- जब पृथ्वी पूरी तरह प्रदूषित हो जाती है एवं पृथ्वी पर मनुष्य सहित अन्य प्राणियों एवं वनस्पितियों का  जीवन कष्टप्रद हो जाता है तथा मनुष्य में ज्ञान का लोप होकर अज्ञान अपने चरम पर पहुंच जाता है, तब सूर्य में प्रज्वाल उठते हैं जिससे पृथ्वी पर अत्याधिक ताप बढ़ता है। ताप बढ़ने से बर्फ पिघलने लगती है जिससे समुद्र के पानी का जल स्तर बढ़ने से सारी पृथ्वी जलमग्न हो जाती है एवं प्राणियों वनस्पितियों का जीवन समाप्त हो जाता है। इसके बाद सारा जल सूखकर वायुमंडल में विलीन हो जाता है और पृथ्वी गरम होकर लावा एवं उर्जा रूप में बदल जाती है पृथ्वी के साथ साथ सभी गृहों पर भी तापमान में वृद्धि होती है। जब सूर्य पर प्रज्वाल समाप्त हो जाते हैं एवं सूर्य सामान्य अवस्था में आ जाता है तब पृथ्वी पुनः ठंडी होने लगती है एवं वाष्प के बादल पृथ्वी को ढक लेते हैं जिससे सैकड़ों वर्षों तक पृथ्वी पर पानी बरसता रहता है शुरू के कई वर्षों तक यह पानी पृथ्वी की सतह तक न पहुंचकर उपर ही वाष्प में बदलता रहता है जब यह सतह तक पहुंचने लगता है तब समुद्र नदियों आदि का निर्माण होने लगता है। लगातार पृथ्वी कई वर्षों तक बादलों से ढकी रहने के कारण सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक नहीं पहुंच पाता जिससे हिमयुग  शुरू होता है इस हिम युग के कारण पृथ्वी की परत कई किलोमीटर नीचे तक ठंडी हो जाती है। जब बादल समाप्त होते हैं और सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक पहुंचने लगता है तब पृथ्वी पर पुनः प्राणी एवं वनस्पतियों का जीवन शुरु होता है। इस संपूर्ण प्रक्रिया में करोड़ों वर्षों का समय लगता है।

महाप्रलयः- सूर्य का जीवनकाल पूरा होने पर अंतिम समय में सूर्य का आकार बढ़ने लगता है साथ ही अत्याधिक उर्जा उतपन्न होती है जिससे सूर्य के सभी ग्रह एवं उपग्रह जलकर उर्जा रूप में पखिर्तित होकर सूर्य में समा जाते हैं इसे विज्ञान की भाषा में सूर्य की सुपरनोवा स्थिति कहते हैं। जब सूर्य की उर्जा अपने चरम बिंदु पर पहुंच जाती है तब यह उर्जा रूप तरंग रूप में बदल जाता है और इससे उर्जा और प्रकाश निकलना बंद हो जाता है और सूर्य ब्लेक होल में पखिर्तित हो जाता है इस तरह एक सौरमंडल का अंत हो जाता है इसका फिर पुनर्जन्म नहीं होता। जब ब्रह्मांड में ब्लेक होल की संखया बहुत अधिक बड़ जाएगी तब नए तारों का जन्म होना बंद हो जाएगा इसके बाद ब्रह्मांड का अंत होगा।

                                          जैसा कि ईश्वर के प्रकरण में लिखा जा चुका है कि जड़ तत्व का सबसे छोटा कण परमाणु होता है एवं चेतन तत्व का सबसे सूक्ष्म रूप आत्मा होती है जो कि ईश्वर के चारों ओर प्रभामंडल के रूप में स्थित होती है। जड़ परमाणु के भीतर ही चेतन तत्व स्थित होता है एवं अलग से स्वतंत्र अवस्था में भी रह सकता है। चेतन तत्व के तरंग रूपी कण परमाणु को बिना तोड़े इससे बाहर निकल सकते हैं जैसे ही चेतन तत्व का एक कण बाहर निकलता है वैसे ही उसी प्रकार का दूसरा स्वतंत्र कण इसका स्थान ले लेता है अतः परमाणु की संरचना यथावत बनी रहती है इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। दो या दो से अधिक परमाणुओं के मेल से एक अणु बनता है ऐसे असंखय अणुओं के मेल से दृश्य पदार्थ का निर्माण होता है तब हम इसे अपनी आंखों से देख पाते हैं। ठोस पदार्थ में अणु एक दूसरे से मजबूती से जुड़े होते हैं इस कारण ठोस पदार्थ स्थिर होते हैं। द्रव पदार्थ में अणु मजबूती से नहीं जुड़े रहते इस कारण इन्हें खुला छोड़ देने पर यह बहने लगते हैं वायु रूप में अणु आपस में जुड़े हुऐ न होकर अलग अलग होते हैं इसलिए वायु हमें आखों से दिखाई नहीं देती एवं हल्की होने के कारण वायुमंडल में बहती रहती है। विज्ञान ने लगभग 101 अलग अलग गुण वाले परमाणुओं की खोज की है परमाणु के भीतर स्थित इलेक्ट्रान, प्रोट्रान, न्यूट्रान आदि की संखया के आधार पर परमाणु के गुण अलग अलग होते हैं परमाणु में स्थित उपरोक्त कणों के भी अलग अलग सैकड़ों गुण होते हैं, इन अलग अलग गुण वाले परमाणुओं को विज्ञान की भाषा में तत्व कहते हैं इन सभी तत्वों के मेल से हमारा शरीर बना हुआ है। प्रत्येक तत्व के परमाणु में हजारों गुण होते हैं धर्मिक ग्रन्थों में गुणों की कुल संख्या तैंतीस करोड़ बताई गई है, अलग अलग गुणों के कारण ही धरती पर या ब्रह्मांड में हर चीज जड़, चेतन, प्राणी, वनस्पति आदि अलग अलग रूपों में दिखाई देते है यदि इन सभी गुणों को हटा दिया जाय तब सिर्फ निराकार ईश्वर ही शेष बच जाता है।

            यही सनातन धर्म दर्शन का सार है।

Wednesday, November 9, 2011

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार - 7


देवी देवता एवं भूत प्रेत

स्वप्न से सभी लोग परिचित हैं और यह भी जानते हैं कि स्वप्न सोते समय ही दिखाई देते हैं। सोते समय स्वप्न देखना एक सामान्य प्रक्रिया है, परंतु बहुत कम लोग ही शायद यह जानते होंगे कि मनुष्य जागृत अवश्था में भी स्वप्न देख सकता है। इन दोनों में सिर्फ इतना अंतर होता है कि सोते समय हमारा शरीर पर नियंत्रण नहीं रहता एवं शरीर में स्थित ज्ञानेन्द्रियां भी सो जातीं हैं जबकि जागृत अवश्था में शरीर पर नियंत्रण बना रहता है एवं शरीर में स्थित ज्ञानेन्द्रियां भी जागृत अवश्था में होतीं हैं दोनों ही अवश्थाओं में हमारा मस्तिष्क विचार शून्य हो जाता है एवं मन वर्तमान से हटकर भूत या भविष्य में चला जाता है, एवं दोनों ही अवश्थाओं में वह जो देखता है वह मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियों (अर्थात तीसरी आंख) से देखता है शरीर में स्थित भौतिक ज्ञानेन्द्रियों से नहीं। सोते समय देखे गए स्वप्न दो प्रकार के होते हैं।

1. सत्य

2. असत्य।

               ये दोनों  ही अनियंत्रित होते हैं, अर्थात मनुष्य का इन पर कोई नियंत्रण नहीं होता।

                 इसी प्रकार जागृत अवश्था में देखे गए स्वप्न भी दो प्रकार के होते हैं ये दोनों ही सत्य होते हैं।



1. नियंत्रित स्वप्न

2. अनियंत्रित स्वप्न

                  नियंत्रित स्वप्न वह हैं जिनके द्वारा हम ध्यान के माध्यम से अपने इच्छित देवी देवता के दर्शन करते हैं वार्तालाप करते हैं या भूत एवं भविष्य आदि की जानकारी प्राप्त करते हैं या हम वैसा ही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं हम किसी भी देवी देवता को उसी रूप में देखते हैं जो आकृति हम पहिले से मन में बना लेते हैं, कोई देवी देवता कभी भौतिक रूप से प्रगट नहीं होते, हमेशा कोई भी इनके दर्शन करने वाला व्यक्ति इन्हें मानसिक रूप से अर्थात मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियों (तीसरी आंख) से ही देखता है बिलकुल उसी प्रकार जैसे कि हम स्वप्न देखते हैं परंतु यह पूर्णतः सत्य होते हैं यहां हम पांचों ज्ञानेन्द्रियों से संबंधित ज्ञान के साथ अलौकिक  अनुभव भी कर सकते हैं। जागृत अवश्था में देखी गई कोई भी आकृति पूर्णतः स्पष्ट एवं सजीव होती है जबकि सोते समय स्वप्न में देखी गई कोई चीज उतनी स्पष्ट और सजीव नहीं होती। विस्तार से इसकी क्रिया पद्यति दूसरे भाग में लिखेंगे।



                    अनियंत्रित स्वप्न वह होते हैं जिसमें मनुष्य अनायास ही ऐसी घटनाओं, अन्य मनुष्य या कोई अन्य आकृतियों को देखता है जो वहां या इस दुनिया में ही नहीं हैं। सामान्य अवश्था में मनुष्य हमेशा वर्तमान काल में ही व्यवहार करता है परंतु जब किसी का मन वर्तमान से हटकर अन्य समय भूत या भविष्य में पहुंच जाता है तब ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती है, इसे हम भूत प्रेत कहते हैं।

                    चूंकि अभी दुनिया में यह प्रश्न ही बना हुआ है कि क्या वास्तव में भूतप्रेत होते हैं?

                    इसका सही उत्तर है कि भौतिक रूप से कोई भूतप्रेत नहीं होते परंतु मानसिक रूप से भूत प्रेत होते हैं या हम यह कह सकते हैं कि भूत प्रेत जागृत अवश्था में देखे गए स्वप्न हैं। कभी कभी समाचार पत्रों के माध्यम से लोगों ने भूत के फोटो लेने के भी दावे किए हैं परंतु यह बिलकुल ही गलत दावे हैं दुनिया में कोई इसे प्रमाणित नहीं कर सकता क्योंकि जो चीज भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है उसकी कोई तस्वीर नहीं खींची जा सकती।

                   जैसा कि मन के प्रकरण में लिखा जा चुका है कि स्वप्न में देखे गए दृश्यों के आधार पर मन मस्तिष्क को आदेश देने लगता है और हमारा शरीर भी भौतिक रूप से क्रिया करने लगता है। इसी प्रकार जब जागृत अवश्था में मन वर्तमान से हट जाता है तब भी मन उस समय देखे गए दृश्यों के आधार पर मस्तिष्क को गलत आदेश देने लगता है एवं ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति स्वयं को या अन्य को कोई भी नुकसान पहुंचा सकता है या कुछ भी कर सकता है। इस स्थिति में मनुष्य के मस्तिष्क सहित उसकी पांचों ज्ञानेन्द्रियां गलत काम कर सकतीं हैं। उसकी ध्राण इंद्रिय ऐसी गंध महसूस कर सकती है जो वहां नहीं है उसकी जिव्हा ऐसा स्वाद महसूस कर सकती है जो वह खा ही नहीं रहा है, या जो वह खा रहा है उसके अलावा उसमें वह किसी दूसरी चीज का स्वाद महसूस कर सकता है। उसकी स्पर्श इंद्रिय महसूस कर सकती है कि उसे कोई मार रहा है एवं इससे उसके शरीर पर मार के निशान भी उभर सकते हैं, वह यह भी महसूस कर सकता है कि उसके शरीर में कोई कांटा चुभा रहा है इससे उसके शरीर से खून भी निकल सकता है, यह भी हो सकता है कि उसकी स्वयं की मांस पेशियां सिकुड़कर उसका गला दबा दें और बाद में लोग यह समझें कि भूत ने गला दबा दिया है। उसकी आंख ऐसे दृश्य या किसी  मृत या जीवित व्यक्ति को देख सकती है जो वहां नहीं है। उसके कान ऐसी आवाज सुन सकते हैं जो वहां कोई नहीं बोल रहा हो या वह स्वयं किसी अन्य जीवित या मृत व्यक्ति की आवाज में बोल सकता है महिला पुरुष की आवाज में और पुरुष महिला की आवाज में बात कर सकता है। यह सब मन द्वारा गलत आदेश मिलने पर प्रभावित व्यक्ति का स्वयं का मस्तिष्क ही करता है। यह सब काम पीड़ित व्यक्ति अपने शरीर में स्थित भौतिक ज्ञानेन्द्रियों से नहीं करता है यह काम वह मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियों से करता है, बिलकुल वैसे ही जैसा कि स्वप्न देखते समय होता है। यदि वह भौतिक आंखों से भूत प्रेत देख रहा होता तब वहां उपस्थित अन्य लोग भी वही दृश्य देखते परंतु ऐसा नहीं होता है पीड़ित व्यक्ति अकेला ही ऐसे दृश्य देखता है।

                        भूत प्रेत कई प्रकार के होते हैं जिनमें निम्न प्रमुख हैं।

       1. मन का वर्तमान से हटकर अन्य समय में चले जानाः- इसमें मनुष्य की स्थिति उपरोक्तानुसार हो जाती है।

       2. किसी विशेष स्थान पर विशेष तरगों की अति सक्रियताः- इसमें घर के सामान का अपने आप  इधर उधर होना, गिरना, उपर उठना, कमरे में तेज हवा का झौंका महसूस करना, कमरे के खिड़की दखाजे अपने आप खुलना बंद होना, पत्थर आदि गिरना, कहीं भी आग लग जाना, कोई आबाजें सुनाई देना आदि ।

       3. आकाशीय परावर्तनः- किसी स्थान पर ऐसे दृश्य दिखाई देना जो वहां नहीं है परंतु घरती पर कहीं दूसरी जगह है यह भी अक्सर विशेष जगहों पर ही होता है इससे कभी कभी वाहन भी दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं एवं उस स्थान पर अक्सर दुर्घनाऐं होतीं रहतीं हैं, ऐसे दृश्य क्षण भर के लिए ही दिखाई देते हैं फिर गायब हो जाते हैं रेगिस्थान में दिखने वाली मृगमारीचिका भी आकाशीय परावर्तन है। अंतरिक्ष में घूमते बर्फ के पिडों से परावर्तन के  कारण ऐसा हो जाता है।

       4. दिशा भ्रमः- जिसे बोलचाल की भाषा में भूलभुलैया कहते हैं। यह अक्सर अंधेरी रात में पगदंडी एवं कच्चे रास्ते वाले मैदानी इलाकों में होता है व्यक्ति किसी गांव की रोशनी को या आगे जाते हुए किसी व्यक्ति को देखता है और अनुमान लगाता है कि वह उस जगह तक दस मिनिट मे पहुंच जायगा परंतु रात भर चलने के बाद भी वह उस जगह तक नहीं पहुंचता सुबह की रोशनी होने पर पता चलता है कि वह किसी विषेश क्षेत्र में ही चक्कर लगा रहा था ऐसा किसी भी वाहन, घुड़सवार या समूह में चलने वालों के साथ भी हो सकता है। यदि वह किसी का अनुसरण कर रहा है तब वह किसी भी सही या गलत स्थान पर पहुंच सकता है। यह स्थिति तभी समाप्त होती है जब वह कुछ देर के लिए रुक जाय या सुबह का उजाला हो जाय। दिशा भ्रम एक बीमारी भी होती है इससे पीड़ित व्यक्ति अपने चिर परिचित स्थान  या अपने घर का ही रास्ता भूल जाता है।

             

                     भूत प्रेत से प्रभावित होने की घटनाऐं अक्सर अशिक्षित एवं ग्रामीण इलाकों मे ही ज्यादा होतीं है क्योंकि इन लोगों में अंधविश्वास एवं भूत प्रेत की धारणा बहुत प्रबल होती है। धारणा का मतलब होता है दृढ़ विश्वास। चूंकि शहरी क्षेत्रों में भी ज्यादातर लोग अंधविश्वासी होते हैं परंतु इसमें इनकी धारणा लगभग पचास प्रतिशत ही होती है इसलिए शहरी क्षेत्रों में बहुत कम लोग ही इससे प्रभावित हो पाते हैं। दूसरे प्रकार अर्थात तरंगों की अति सक्रियता का धारणा से कोई संबंध नहीं होता यह किसी के भी साथ हो सकता है परंतु जब कोई व्यक्ति ऐसी जगह पर पहुंच जाता है तब भय के कारण उसमें भी धारण प्रवल हो जाती है और ऐसे स्थान पर वह भूत प्रेत से भी प्रभावित हो जाता है। तीसरे प्रकार का भूत प्रेत या धारणा से कोई संबंध नहीं है। चौथे प्रकार में भी यदि व्यक्ति अकेला है औेर डर जाता है तब यहां भी भूत प्रेत का शिकार हो सकता है।

                     किसी व्यक्ति में देवी देवता का भाव आ जाना भी इसी प्रकार की प्रक्रिया है इसमें वह मन से प्रवल धारणा के कारण तो उस देवी देवता से जुड़ जाता है परंतु उसे उनकी आराधना की क्रिया पद्यति का सही ज्ञान नहीं होता इसमें वह देवी देवता के माध्यम से जो भी बोलता है वह सही व गलत दोनों हो सकता है जैसा कि उपर लिखा गया है कि प्रकृति में सत रज एवं तम तीन गुण होते हैं इनमें यदि उसके उपर सत का प्रभाव है तब वह सही बोलेगा यदि तम का प्रभाव है तब गलत बोलेगा यह भूत प्रेत के समान उग्र नहीं होते सत से प्रभावित व्यक्ति बिलकुल शांत स्थिति में होता है एवं तम से प्रभावित व्यक्ति कुछ उग्र हो सकता है।

                         इसी प्रकार व्यक्ति का मन जब पूर्व जन्म के समय से जुड़ जाता है तब उसे पूर्व जन्म की याद आ जाती है। इस प्रकार ये सभी जागृत अवश्था में देखे गए स्वप्न हैं। मन के शरीर के बाहर कहीं भी जाने की क्षमता एवं सापेक्षवाद के कारण ऐसा होता है। उपरोक्त किसी भी चीज से प्रभावित व्यक्ति जागृत अवश्था मे होते हुए भी वर्तमान काल में व्यवहार नहीं करता इन अवश्थाओं में उसे शरीर का पूरा ध्यान रहता है एवं शरीर पर नियंत्रण भी बना रहता है चूंकि पहली अवश्था में शरीर से नियंत्रण भी खो सकता है।

                        उपरोक्त तथ्यों से पता चलता है कि इस दुनिया या ब्रह्मांड में जो भी घटित होता है, या मनुष्य अपनी ज्ञानेन्द्रियों से जो देखता सुनता समझाता है उसके पीछे क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया के आधार पर एक निश्चित वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है। जिसे लोग समझते नहीं, उसे चमत्कार, भूत प्रेत या दैवीय शक्ति आदि कहने लगते हैं। देवी देवताओं के नाम पर चमत्कार दिखाने या स्वयं को देवी देवता का कृपा पात्र बताकर लोगों को प्रलोभन देने वाले एवं इलाज आदि करने वाले लोग ठग होते हैं इनसे लोगों को हमेशा दूर रहना चाहिए। ये लोग चमत्कार दिखाकर लोगों को आकर्षित करने के लिए अक्सर जादू, हाथ की सफाई, सम्मोहन, रसायन विज्ञान आदि का प्रयोग करते हैं। धर्म या आध्यात्म के क्षेत्र में किसी प्रकार का कोई चमत्कार नहीं होता यह स्वस्थ एवं सुखी जीवन जीने के लिए एक उच्चस्तरीय ज्ञान है।

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार - 6


सापेक्षवाद

                    समय एवं प्रकाश की गति की तुलना को सापेक्षवाद कहते हैं। सापेक्षवाद गणित का विषय है हो सकता है सबको समझ में न आए परंतु आध्यात्म को समझने के लिए सापेक्षवाद को समझना जरूरी है मन एवं ध्यान का इससे सीधा संबंध है, देवी देवताओं के दर्शन करना, भूत प्रेत देखना, पिछले जन्मों की याद आ जाना, किसी बहुत पुरानी घटना को देखना, स्वप्न देखना आदि का सापेक्षवाद से सीधा संबंध है।

                     जब किसी वस्तु से निकली प्रकाश की किरण हमारी आंख से टकराती है तब हमें वह वस्तु दिखाई देती है। इस वस्तु से निकली प्रकाश की किरण एक सेकिंड में तीन लाख किलोमीटर चलती है तथा इसी के अनुसार समय आगे बढ़ता है यदि हम तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकिंड की गति से चलें तब समय रुक जाएगा, यदि हम इससे तेज गति से चलें तब समय पीछे चलने लगेगा अर्थात सोमवार के बाद रविवार आएगा या तीस तरीख के बाद उन्तीस तारीख आएगी एवं दिसम्वर के बाद नवम्वर आएगा आदि या इस प्रकार कह सकते हैं कि हम पिछले समय में घटित घटनाओं को देखने लगेंगे अर्थात हम भूतकाल में पहुंच जाऐंगे। हम इसे एक काल्पनिक प्रयोग द्वारा समझ सकते हैं।

                       मानलो हमारे पास एक ऐसी घड़ी है जिसे हम ब्रह्मांड के किसी भी कोने से देख सकते हैं, हम इस घड़ी के घंटा मिनिट एवं सेकिंड के कांटों को मिलाकर इसमें ठीक बारह बजा देते हैं। ठीक बारह बजे इस घड़़ी के कांटे से जो प्रकाश की किरण निकलेगी वह तीन लाख किलो मीटर प्रति सेकिंड की गति से आगे बढ़ेगी ठीक बारह बजे हम भी इस किरण के साथ किरण की दिशा में तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकिंड की गति से आगे बढ़ते हैं अब हमारी गति एवं इस धड़ी के कांटे से निकली किरण की गति बराबर है। हम कितने भी समय तक इस गति से चलते रहें हमें घड़ी का कांटा उसी जगह रुका हुआ दिखता रहेगा अर्थात इस गति से हम जब तक चलते रहेंगे तब तक हमें इस घड़ी के तीनों कांटे बारह पर ही स्थिर दिखते रहेंगे अर्थात समय रुका रहेगा, जबकि वास्तव में घड़ी का कांटा अपनी सामान्य गति से आगे बढ़ रहा होगा, यदि हम एक घंटा इस गति से चलते हैं तब घड़ी में वास्तव में तो एक बज गया होगा परंतु हमें इसके तीनों कांटे बारह पर ही दिख रहे होंगे अर्थात हम घरती पर बारह बजे घटित घटना को ही देख रहे होंगे या इस प्रकार कह सकते हैं कि समय एक घंटा पीछे पहुंच जाएगा। अब हम इस गति से एक घंटे चलने के बाद रुक जाते हैं हमारे रुक जाने पर हमें यह घड़ी सामान्य गति से चलती हुई दिखने लगेगी अर्थात इसका कांटा अब सामान्य गति से आगे बढ़ते हुए दिखने लगेगा। अब हम यहां एक घंटे अर्थात इस घड़ी में एक बजने तक रुकते हैं जब हमें इसमें एक बजा दिखेगा तब वास्तव में इसमें दो बज गए होंगे, एवं जब तक हम यहां रुके रहेंगे तब तक समय भी एक घंटे पीछे चलता रहेगा अब हम एक बजे उसी गति से वापिस लौटते हैं लौटते समय हमें इस घड़ी का कांटा दुगनी गति से आगे बढ़ता दिखाई देगा क्योंकि हम तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकिंड की गति से घड़ी की ओर बढ़ रहे हैं एवं इस घड़ी से निकली प्रकाश की किरण भी तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकिंड की गति से विपरीत दिशा में हमारी ओर बढ़ रही है एक घंटा प्रकाश की गति से चलने के बाद जब हम घरती पर पहुंचेंगे तब इस घड़ी में हम तीन बजे देखंगे और वास्तव में भी तीन बजे होंगे अर्थात वापिस लौटने पर वास्तविक एवं काल्पनिक समय बरावर होगा। इससे पता चलता है कि जब तक हम एक घंटा प्रकाश की गति से आगे बढ़ते रहे तब तक समय रुका रहा जब हम रुक गए तब समय सामान्य गति से आगे बढ़ने लगा जब हम लौटे तब समय दुगनी गति से आगे बढ़ने लगा एवं घरती पर पहुंचने पर समय बराबर हो गया। इससे यह सिद्ध होता है कि जब हम गति में होते हैं एवं जहां से हम चले हैं उस स्थान के वास्तविक समय के दृश्य को नहीं देख पाते हम  पिछले समय में घटित घटना को देखते हैं फिर चाहे कितनी भी तेज या धीमी गति से चल रहे हों, इससे गणतीय सूत्र भी बनाया जा सकता है। ऐसा तभी संभव है जब हम भौतिक रूप से प्रकाश की गति से चल सकें अब तक विज्ञान या अन्य कोई भी इस गति से चलने में सक्षम नहीं है। भौतिक रूप से देखने के लिए हमारी गति कम से कम अड़तीस हजार किलोमीटर प्रति सेकिंड होना आवश्यक है क्योंकि हमारी आंख सेकिंड के आठवें भाग से कम समय में होने वाले पखिर्तन को नहीं देख सकती, जबकि प्रकाश की गति के अनुसार सेकिंड के प्रति तीन लाखवें भाग में दृश्य पखिर्तन होता रहता है अर्थात एक सेकिंड में तीन लाख बार दृश्य बदल चुका होता है। यदि विज्ञान प्रकाश तरंगों की गति पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है तब भी पिछले समय में घटित घटना को देखा जा सकेगा या कोई ऐसा पारदर्शी माध्यम बनाया जा सकेगा जिससे निकलने पर इनकी गति कम हो जाय। चूंकि विज्ञान का अभी किसी भी प्रकार की तरंगों की गति पर कोई नियंत्रण नहीं है।

                   हम मानसिक रूप से प्रकाश की गति से भी कई गुना तेज गति से चल सकते हैं परंतु मानसिक रूप से चलने पर यह नियम लागू नहीं होता इसमें थोड़ा सा बदलाव हो जाता है इसे भी हम उपरोक्त प्रयोग द्वारा ही दूसरी तरह से समझ सकते हैं।

                   उपरोक्त प्रयोग के अनुसार जब हम एक घंटे प्रकाश की गति से चलने के बाद यहां पहुंचे तब वास्तविक एवं काल्पनिक समय में एक घंटे का अंतर था अर्थात घड़ी में तो एक बज गया था परंतु हमें  इसमें बारह बजा ही दिख रहा था, हमारे यहां रुकते ही यह अंतर समय की सामान्य गति से कम होने लगेगा एवं एक घंटे बाद यह अंतर शून्य हो जाएगा अर्थात हम घरती पर वापिस पहुंच जाऐंगे तब इस घड़ी में एक ही बजा होगा क्योंकि लौटते समय हमें जो एक घंटा का समय लगा वह काल्पनिक समय है, या लौटने में जो वास्तविक समय लगा वह शून्य है परंतु जाते समय जो समय लगा वह वास्तविक समय था। एक घंटे तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकिंड की गति से जब तक हम चलते रहे तब तक हमें घड़ी के कांटे बारह पर ही दिखते रहे। जिस समय हम यहां रुके तब घरती पर एक घंटे पूर्व का दृश्य हमें दिखाई दे रहा था परंतु हमारे यहां रुक जाने से समय नहीं रुकेगा वह अपनी सामान्य गति से आगे बढ़ता रहेगा अतः हम स्वतः ही वापिस लौटने लगेंगे एवं एक घंटे बाद हम अपने मूल स्थान पर पहुंच जाऐंगे, मानसिक रूप से चलने पर यही नियम लागू होता है। चूंकि यह उदाहरण सिर्फ समझने के लिए है हमारा मन बहुत तेज गति से चलता है इसे ब्रह्मांड में कहीं भी पहुंचने में एक सेकिंड से अधिक समय नहीं लगता।                    

                    सापेक्षवाद के सिद्धांत के अनुसार इस ब्रह्मांड में या धरती पर जो भी दृश्य प्रगट होता है वह तरंग रूप में पखिर्तित होकर तीन लाख किलोमीटर प्रति सेंकिंड की गति से ब्रह्मांड में आगे बढ़ता रहता है यह कभी नष्ट नहीं होता एवं इसके स्थान पर इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप अगले क्षण नई स्थिति प्रगट होती है इसका फैलाव सभी दिशाओं में होता है जिस प्रकार कि सूर्य का प्रकाश सभी दिशाओं में फैलता है अर्थात एक केन्द्र बिन्दु से निकलकर दृश्य तरंगें सभी दिशाओं में फैलती रहतीं हैं। समय को तीन भागों में विभक्त किया गया है।

1. वर्तमान काल

2. भूत काल

3. भविष्य काल

                    वर्तमान भूतकाल बनकर आगे बढ़ जाता है एवं वर्तमान की प्रतिक्रिया स्वरूप अगले छड़ भविष्य प्रगट होकर वर्तमान बन जाता है, इसी प्रकार समय और दृश्य आगे बढ़ते रहते हैं सामान्य अवश्था में हम सिर्फ वर्तमान को ही देख सकते हैं भूत और भविष्य को नहीं देख सकते। हमें जितने पिछले समय का दृश्य देखना है तब हमें उतनी ही तीव्र गति से आगे बढ़ना होगा। मानलो आज हमारी आयु साठ वर्ष हैं हम स्वयं को दस वर्ष का देखना चाहते हैं तब हमें पचास प्रकाश वर्ष आगे जाना होगा तब हम स्वयं को दस वर्ष का या पचास वर्ष पूर्व का दृश्य देख पाऐंगे। ( प्रकाश तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकिंड की गति से एक वर्ष में जितनी दूरी तय करता है उतनी दूरी को एक प्रकाश वर्ष कहते हैं )। ऐसा करना विज्ञान या किसी के भी लिए भौतिक रूप से सम्भव नहीं है, परंतु मानसिक रूप से यह कार्य किया जा सकता है जैसा कि मन के प्रकरण में लिखा जा चुका है कि ज्ञानेन्द्रियां हमारे मन में स्थित हैं एवं मन ब्रह्मांड में किसी भी गति से कहीं भी जाने में सक्षम है अतः हमारा मन वहां पहुंचकर पांचों ज्ञानेन्द्रियों से संबंधित गंध, स्वाद, स्पर्श, दृश्य एवं शब्द का ज्ञान प्राप्त कर सकता है परंतु इस स्थिति में भौतिक रूप से कोई पखिर्तन नहीं कर सकता। इसे हम एक काल्पनिक प्रयोग द्वारा समझ सकते हैं।

                    मानलो आज हमारी आयु साठ वर्ष है एवं हम स्वयं को दस वर्ष का देखना चाहते हैं इसके लिए हमें ब्रह्मांड में पचास प्रकाश वर्ष आगे जाना होगा हम घड़ी के ठीक छः बजे ध्यान के माध्यम से एक सेकिंड में पचास प्रकाश वर्ष आगे पहुचते हैं यहां पहुंचकर हम स्वयं को दस वर्ष का देखेंगे अर्थात समय पचास वर्ष पीछे पहुंच जाएगा अब हम यहां रुक जाते हैं हमारे यहां रुकते ही समय सामान्य गति से आगे बढ़ने लगेगा अब यहां हम पचास वर्ष तक रुकते हैं, यहां रुकते ही हम हमारी दस वर्ष की आयु से साठ वर्ष तक की आयु में जो भी घटनाएं घटित हुईं थीं उन्हें उसी क्रम में हम फिर से देखेंगे एवं दस वर्ष से साठ वर्ष के जीवन काल में जो भी सुख दुख हमने घरती पर महसूस किया था यहां भी महसूस करेंगे साथ ही हम यह भी महसूस करेंगे कि हमने यहां पचास वर्ष बिताए। जब हम घरती पर लौटेंगे तब हमारी आयु सिर्फ एक सेकिंड ही बढ़ी होगी, क्योंकि हम जब गये थे तब घड़ी में छः बजे थे परंतु जब लौटे तब इस घड़ी में छः बजकर एक सेकिंड हुआ होगा क्योंकि पचास प्रकाश वर्ष प्रति सेकिंड की गति से पचास वर्ष पीछे जाने में हमें सिर्फ एक सेकिंड लगा जो कि वास्तविक समय है यहां रुककर हमने जो पचास वर्ष बिताए वह काल्पनिक समय है यहां हमें पचास वर्ष बिताने के लिए जो वास्तविक समय लगा वह शून्य है। महाभारत में भी युधिष्ठर से सबंधित बिलकुल ऐसा ही प्रसंग दिया गया है। इसी आधार पर हम पिछले जन्मों के जीवन को भी देख सकते हैं योग वशिष्ठ में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है यह पूरा ग्रन्थ ही सापेक्षवाद पर आधारित है। चूंकि ध्यान के समय शून्यकाल में हम सैकडों हजारों वर्षों का समय कैसे बिता लेते हैं इसकी कोई सैद्धांतिक जानकारी किसी को नहीं है  यह अवश्य कहा जा सकता है कि आयु शरीर की बढ़ती है मन की नहीं और भूतकाल में हमारा मन जाता है शरीर नहीं इसलिए ऐसा हो सकता है। हमारा मन भूत या भविष्य किसी भी काल में जा सकता है, परंतु भविष्य काल में कैसे पहुंचते हैं इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है।

Tuesday, November 8, 2011

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार - 5


प्राण

                                 प्राण द्रव्य का उर्जा रूप है यह हमें सूर्य से प्राप्त होता है एवं हमारे संपूर्ण शरीर में व्याप्त है इसके बिना किसी भी प्रकार का जीवन संभव नहीं। शरीर से प्राण के निकल जाने पर मनुष्य या किसी भी प्राणी की मृत्यु हो जाती है प्राण द्वारा शरीर को छोड़ देने पर कोई भी प्राणी एक सेकिंड भी जीवित नहीं रह सकता। प्राण शरीर के स्थाई अवयवों जैसे हृदय फेफड़े गुर्दे पाचन संस्थान मष्तिष्क सहित हमारे संपूर्ण शरीर  को क्रियाशील बनाये रखता है। यह शरीर के भीतर पांच भागों में विभक्त होकर जीवन भर अपना काम करता है। प्राण को हम जीवनी शक्ति भी कहते हैं। हमारे शरीर में पांच मुखय प्राण और पांच उप प्राण होते हैं।

    मुखय प्राण:- 1. प्राण 2. अपान 3. समान 4. उदान 5. व्यान।



    उपप्राण:-    1. नाग 2. कूर्म 3. कृकल 4. देवदत्त 5. धनन्जय।

                       मुखय प्राण और उप प्राण मिलकर एक कोन की आकृति बनाकर घूमते हुए शरीर में गतिशील रहते हैं, इस कोन की आकृति के उपरी भाग को मुखय प्राण एवं निचले भाग को उप प्राण कहते हैं। मुखय प्राण का कार्य है उर्जा रूप शुद्ध तत्व को ग्रहण करना एवं उपप्राण का कार्य है अनावश्यक उर्जा तत्वों का उत्सर्जन करना। प्राण को क्रियाशील बने रहने के लिए आक्सीजन की आवश्यकता होती है जिसे प्राणी श्वास के द्वारा प्राप्त करते हैं। श्वास के माध्यम से ली गई हवा से हमारे फेफड़े आक्सीजन को अवशोषित कर नर्व के माध्यम से संपूर्ण शरीर में पहुंचाते हैं जो कि प्राण को क्रियाशील बनाए रखती है। प्राण और आक्सीजन एक दूसरे के पूरक हैं, शरीर को क्रियाशील रखने के लिए इन दोनों की आवश्यकता होती है किसी एक के न होने पर प्राणी की मृत्यु हो जाती है, आक्सीजन के बिना तो मनुष्य पांच से सात मिनिट तक जीवित रह सकता है परंतु प्राण के बिना एक सेकिंड भी जीवित नहीं रह सकता। प्राण और आक्सीजन शरीर को उसी प्रकार चलाते हैं जिस प्रकार कि तेल और अग्नि एक वाहन के इंजन को चलाते हैं। वाहन के सिलेन्डर में स्पार्क द्वारा अग्नि उतपन्न की जाती है जो पंप द्वारा सिलेन्डर में भेजे गए तेल को जलाकर उर्जा उतपन्न कर पिस्टन को चलाती है इसमें अकेला तेल या अकेली अग्नि पिस्टन को नहीं चला सकते। इसी प्रकार हमारे शरीर में आक्सीजन ईंधन है एवं प्राण अग्नि है, प्राण आक्सीजन को जलाकर उर्जा उतपन्न कर हमारे शरीर के स्थाई अवयवों को संचालित करता है यहां भी अकेला प्राण या अकेली आक्सीजन शरीर को नहीं चला सकते।

                   एक बार इंजन को बंद कर देने पर इसे पुनः चालू किया जा सकता है परंतु एक बार मृत्यु हो जाने पर प्राणी को पुनः जीवित नहीं किया जा सकता क्योंकि विज्ञान अभी प्राण को पुनः शरीर में प्रविष्ट कराकर पुनः क्रियाशील कराने या प्राण को शरीर में रोके रखने की कोई विधि विकसित नहीं कर पाया है, भविष्य में विज्ञान शरीर में प्राण को रोके रखने की विधि विकसित कर सकता है परंतु इससे कोई विशेष फायदा नहीं होगा क्योंकि प्राण शरीर को तभी छोड़़ता है जब प्राण के द्वारा संपूर्ण प्रयास करने के बाद भी शरीर के अंग काम नहीं कर पाते या अंग भंग होने से प्राण की क्रिया प्रणाली में वाधा उतपन्न हो जाती है। इतना फायदा अवश्य हो सकता है कि डाक्टर को शरीर को ठीक करने के लिए ज्यादा समय मिल जाएगा। यदि विज्ञान शरीर में प्राण को पुनः प्रविष्ट कराने का विधि भी विकसित कर लेता है तब इससे भी कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि शरीर से प्राण के निकलते ही शरीर के तरंग उर्जा और वायु रूप भी नष्ट हो जाते हैं एवं शरीर में जो स्वतंत्र अवश्था में मुखय आत्माऐं हैं वह भी शरीर से बाहर निकल जातीं हैं, सिर्फ ठोस, द्रव एवं कुछ वायु रूप ही शेष बच जाता है वह भी मृत्यु के कुछ घंटों बाद सड़ने गलने लगता है, फिर भी यदि विज्ञान पुनः जीवित करना सीख लेता है तब जीवित किया गया व्यक्ति वह नहीं होगा जिसकी मृत्यु हुई थी क्योंकि मृत्यु के साथ मन भी नष्ट हो जाता है अतः पुनः जीवित होने वाला व्यक्ति अपने पिछले जीवन को भूल चुका होगा। इसलिए शरीर में प्राण को रोके रखने की विधि ही ज्यादा सही होगी। प्राणायाम के द्वारा प्राण को मस्तिष्क में रोककर रखा जा सकता है परंतु यह काम पूर्ण स्वस्थ एवं पहुंचे हुए योगी ही कई वर्षों के अभ्यास के बाद कर सकते हैं। कोई बीमार या सामान्य सांसारिक व्यक्ति इस कार्य को नहीं कर सकता परंतु यह बिलकुल सत्य है कि प्राण को लम्बे समय तक मस्तिष्क में रोका जा सकता है हमारे पूर्वज इस प्रक्रिया को अच्छी तरह जानते थे इसके लिए विज्ञान को नई तकनीक विकसित करनी होगी।

                  हमारे शरीर में मुखय प्राण मस्तिष्क में क्रियाशील रहता है बाकी चार प्राण क्रमशः शरीर के निचले भागों में रहते हैं। मस्तिष्क में जब तक मुख्य प्राण रहता है तब तक मनुष्य की मृत्यु नहीं होती भले ही उसकी हृदय गति श्वांस एवं नाड़ी बंद हो गई हो इसलिए मृत्यु को प्रमाणित करने के लिए डाक्टर मस्तिष्क का परीक्षण करते हैं। कभी कभी समाचार पत्रों के माध्यम से भी सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति मृत्यु के कुछ देर बाद पुनः जीवित हो गया इसका कारण यही होता है कि हृदय गति श्वांस आदि बंद हो जाने के बाद भी मुख्य प्राण मस्तिष्क में रुका रहता है, एवं कुछ समय बाद पुनः शरीर में सक्रिय हो जाता है एक बार मुख्य प्राण के निकल जाने बाद  किसी भी तरह व्यक्ति जीवित नहीं हो सकता। चूंकि प्राण को क्रियाशील रहने के लिए आक्सीजन की आवश्यकता होती है ऐसी स्थिति में श्वांस बंद हो जाने पर मस्तिष्क त्वचा से आक्सीजन अवशोषित करने लगता है, इसलिए किसी की भी मृत्यु होने पर डाक्टर से अंतिम संस्कार के पूर्व मस्तिष्क का परीक्षण करवा लेना चाहिए। जब मनुष्य इस स्थिति में पहुंच जाता है अर्थात मुख्य प्राण मस्तिष्क में रुका रहता है तब मन का शरीर एवं बाहरी संसार से संपर्क टूट जाता है तब मन अंतरमुखी होकर आत्मा में स्थित हो जाता है और इस समय मनुष्य अलौकिक अनुभव करने लगता है। ऐसा संयोग से कभी कभी लाखों में एक के साथ होता है।

                    प्राणायाम के अभ्यास द्वारा मस्तिष्क को त्वचा से आक्सीजन अवशोषित करने में सक्षम बना सकते हैं। मस्तिष्क को त्वचा से आक्सीजन अवशोषित करने योग्य बनाने के लिए कई वर्षों तक निश्चित विधि द्वारा प्राणायाम का अभ्यास करना पड़ता है। जब हमारा मस्तिष्क त्वचा से आक्सीजन अवशोषित करने हेतु अभ्यस्त हो जाता है तब मनुष्य बिना सांस लिए मुख्य प्राण को मस्तिष्क में रोककर लम्बे समय तक जीवित रह सकता है एवं पुनः प्राण को शरीर में क्रियाशील कर सामान्य अवश्था में आ सकता है इसके लिए जहां वह बैठा है उस जगह आक्सीजन का होना आवश्यक है यदि उसे ऐसी जगह बंद कर दिया जाय जहां आक्सीजन न हो तब उसकी मृत्यु हो जाएगी। इसे आध्यात्म की भाषा में समाधि कहते हैं। इस विधि का उपयोग करना हमारे आस पास  रहने वाले कई प्राणी  जानते है जैसे छिपकली मेंढक ध्रुवीय प्रदेशों में रहने वाले भालू आदि, इसे आम भाषा में शीतनिद्रा कहते हैं ।

                    हमारा स्वास्थ शरीर में प्राण की प्रक्रिया के उपर निर्भर है। प्राण के वलवान रहने पर ही मनुष्य वलवान रहता है एवं प्राण से ही व्यक्ति के चेहरे पर चमक एवं शरीर में स्फूर्ति रहती है प्राणवान व्यक्ति दूसरों को जल्दी अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। प्राण के कमजोर होने पर हमारा शरीर भी कमजोर होने लगता है एवं बीमारियों से लड़ने या कोई भी कार्य करने की क्षमता कम होने लगती है इससे हमारे शरीर के भीतरी अवयय भी बीमारी का शिकार होकर कमजोर होने लगते हैं,  जब हमारे शरीर के अंग काम करने योग्य नहीं रह जाते तब प्राण शरीर को छोड़ देता है और प्राणी की मृत्यु हो जाती है।

                        प्राणायाम प्राण पर नियंत्रण प्राप्त करने की एक प्रक्रिया है। प्राणियों का जीवन सांसों की संख्या के उपर निर्भर है जो प्राणी प्रति मिनट जितनी ज्यादा सांसें लेता है उसकी आयु उतनी ही कम होती है एवं जो जितनी कम सांसे लेता है उसकी आयु उतनी अधिक होती है। हम लम्बी और गहरी सांस लेकर सांसों की संख्या को कम कर सकते हैं। शरीर में प्राण की एक सामान्य गति होती है इस गति में थोड़ा सा भी पखिर्तन होने पर हमारे स्वास्थ पर तुरंत प्रभाव पड़ता है।

                      हम हवा से स्वांस द्वारा जो वायु लेते हैं वह हमारे फेफड़ों में पहुंचती है हमारे शरीर में दायीं एवं वांयी ओर दो फेफड़े होते हैं इनमें लाखों कोशिकाएं होती है ये अंगूर के गुच्छों के समान दिखते हैं इन कोशिकाओं से नर्वस् निकलकर हमारे शरीर के रोम रोम तक जातीं है  ये नर्वस् फेफड़ों की कोशिकाओं द्वारा अवशोषित की गई आक्सीजन को हमारे संपूर्ण शरीर को पहुंचातीं है जिससे प्राण क्रिया करता है हमारे फेफड़ों की यह विशेषता है कि यदि हमारी पचहत्तर प्रतिशत कोशिकाएं खराब हो जाएं तब भी मनुष्य जीवित रहता है एवं साधारण दैनिक कार्य भी कर सकता है इस स्थिति में वह कोई मेहनत का कार्य नहीं कर सकता। कोशिकाएं खराब होने से नर्वस् को पूरे शरीर में आक्सीजन पहुंचाने में अधिक समय लगता है इससे प्राण को पर्याप्त आक्सीजन नहीं मिलने से प्राण की गति बढ़ती है एवं प्राण कमजोर होने लगता है जिससे हमारा शरीर भी कमजोर होने लगता है एवं बीमारियों से लड़ने की क्षमता कम होने लगती है। प्राणायाम से मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है क्योंकि हम प्रति मिनिट सांसों की संख्या जितनी कम करेंगे हमारी आयु उतनी बढ़ जाएगी या जितने समय बिना स्वांस लिए समाधि की अवश्था में रहेंगे उतनी हमारी आयु बढ़ेगी।

                   प्राणायाम एक जटिल तकनीक है इसे योग्य एवं प्रशिक्षित व्यक्ति से ही सीखना चाहिए। सोलह वर्ष से कम आयु का कोई भी व्यक्ति इसके लिए पात्र नहीं है। सोलह वर्ष से कम आयु वालों से कभी प्राणायाम नहीं करवाना चाहिए।

                   प्राणायाम के चार चरण होते हैं।

1. पूरक 2. अन्तः कुम्भक 3. रेचक 4. वाह्य कुम्भक।

                   स्वांस के द्वारा हवा फेफड़ों में भरने की क्रिया को पूरक कहते हैं। फेफड़ों में हवा को कुछ देर रोक कर रखने की क्रिया को अन्तः कुम्भक कहते हैं। स्वांस बाहर छोड़ने की क्रिया को रेचक कहते हैं। फेफड़ों को खाली कर कुछ देर बिना स्वांस लिए रहने की क्रिया को वाह्य कुम्भक कहते हैं। इन चारों क्रियाओं को मिलाकर एक प्राणायाम कहा जाता है। इन चारों क्रियाओं को आठ बार करने को प्राणायाम का एक चक्र कहते हैं। साधारण अवश्था में जब हम स्वांस लेते हैं तब हमारे फेफड़ों की कोशिकाएं पूरी नहीं भर पातीं एक पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति के फेफड़ों में साधारण अवश्था में लगभग छः सौ घन सेन्टीमीटर हवा ही पहुंचती है, यदि हमारे फेफड़ों को पूरी तरह भरा जाय तब तीन हजार घन सेन्टीमीटर हवा को फेफड़ों में भरा जा सकता है अर्थात सामान्य से पांच गुना। कोशिकाओं के पूरा नहीं भरने पर घीरे घीरे इनमें कफ जमा होने लगता है एवं इनकी दीवारें कड़ी होने लगतीं हैं जिससे इनकी आक्सीजन अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है एवं बाद में स्वांस संबंधी बीमारियां उत्पन्न होतीं हैं इसलिए मनुष्य को हमेशा लम्बी एवं गहरी स्वांस लेने की आदत डालना चाहिए।

                       रेचक एवं पूरक क्रिया कोई भी व्यक्ति कर सकता है परंतु इसे फेफड़ों की क्षमता एवं सामर्थ से अधिक न किया जाए, कुम्भक क्रिया हमेशा योग्य प्रशिक्षित व्यक्ति से ही सीखना चाहिए क्योंकि इससे मस्तिष्क में आक्सीजन की कमी होती है जो कि मस्तिष्क एवं शरीर के लिए नुकसानदायक हो सकती है फेफड़ों की क्षमता एवं व्यक्ति के स्वास्थ के आधार पर इसकी एक निश्चित समय तालिका बनाई जाती है उस के अनुसार प्राणायाम की चारों क्रियाओं के समय को घीरे धीरे बढ़ाया जाता है जिससे प्रति मिनिट स्वांस लेने की संख्या कम होती है। लगातार कई वर्षों तक अभ्यास करते रहने से मस्तिष्क धीरे धीरे त्वचा से आक्सीजन अवशोषित करने में अभ्यस्त होने लगता है तब मनुष्य समाधि के लिए पात्र बनता है या प्राण को मस्तिष्क में रोककर लम्बे समय तक बिना स्वांस लिए रह सकता है। प्राण की गति कम करने से मन की चंचलता भी कम होती है इससे एकाग्र होने या ध्यान करने में भी सहायता मिलती है।

           प्राणायाम कई प्रकार का होता है जिनमें निम्न प्रमुख हैं।



 1. साधारण या उज्जायी प्रणायाम

 2. विलोम प्राणायाम

 3. भ्रामरी प्राणायाम

 4. मूर्च्छा प्राणायाम

 5. प्लाविनी प्राणायाम

 6. आंगुलिक प्राणायाम

 7. भत्रिका प्राणायाम

 8. कपालभाति प्राणायाम

 9. शीतली प्राणायाम

10. शीतकारी प्राणायाम

11. अनुलोम प्राणायाम

12. प्रतिलोम प्राणायाम

13. सूर्यभेदन प्राणायाम

14. चंद्रभेदन प्राणायाम

15. नाड़ी शोधन प्राणायाम आदि।

                 उपरोक्त में मूर्च्छा प्राणायाम और प्लाविनी प्राणायाम अब प्रचलन में नहीं हैं।



                  हमारे शरीर में वायु और प्राण नर्वस् अर्थात नाड़ियों के माध्यम से गतिशील रहते हैं इन्हें हम शरीर की वायरिंग कह सकते हैं। हमारे शरीर में लाखों नाड़ियां होती है। धार्मिक ग्रथों के अनुसार शरीर में 101 मुख्य नाड़ियां होतीं हैं इनमें प्रत्येक नाड़ी में से 72 हजार नाड़ियां निकलकर संपूर्ण शरीर अर्थात पैर के तलवों से सिर के सर्वोच्च स्थान एवं शरीर के रोम रोम तक जातीं है। ये सभी नाड़ियां रीड़ की हड्डी के बीच में सुरक्षित रहकर यहां से शरीर के अलग अलग भागों में जातीं हैं। रीड़ की हड्डी में  ये नाड़ियां मस्तिष्क में उपर ब्रह्मरंध एवं नीचे कुंडलनी तक जातीं हैं, उपर ब्रह्मरंध एवं नीचे कुंडलनी तक तीन नाड़ियां ही पहुंचतीं हैं जिन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना कहते हैं। इड़ा का शरीर में अंतिम स्थान बायां नासारंध्र एवं पिगला का अतिम स्थान दायां नासारंध्र है, सिर का सर्वोच्च अर्थात ब्रह्मरंध्र सुषुम्ना का अंतिम स्थान है। इड़ा को चंद्र एवं पिंगला को सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। इसमें इड़ा का कार्य शीतलन, पिंगला का कार्य ज्वलन एवं सुषुम्ना का कार्य सत्व है। इन नाड़ियों की कार्यप्रणाली में बाधा उतपन्न होने से कई बीमारियां जैसे लकवा, अंगों का शून्य होना, वात रोग, दर्द आदि उतपन्न होते हैं। नाड़ियों की कार्य प्रणाली को आसन के द्वारा नियंत्रित किया जाता है।

                  हमारी रीड़ में 33 डिस्क होते हैं जिससे रीड़ में लचीलापन बना रहता है। इन डिस्क के बीच में सभी नाड़ियां सुरक्षित रहतीं हैं, यह डिस्क एक्सल पर लगी वियरिंग के समान कार्य करते हैं इनकी गति से नाड़ियों में कोई खिचाव या दबाव उतपन्न नहीं होता चूंकि वियरिंग तो सिर्फ आगे पीछे ही घूम सकती है परंतु डिस्क चार दिशाओं अर्थात उपर नीचे दायें वायें गति कर सकते हैं परंतु इनकी गति कुछ डिग्री तक ही सीमित रहती है। इसके बीच में आठ चक्र होते हैं जिन्हें विज्ञान की भाषा में ग्लेंडस् कहते हैं। ये ग्लेंडस् शरीर के लिए हार्मोन्स का उत्सर्जन करते हैं इनके सही काम न करने से मानसिक एवं शारीरिक विकृतियां उतपन्न होतीं है



    हमारा शरीर द्रव्य के पांच रूपों अर्थात ठोस, द्रव, वायु, उर्जा एवं तरंग रूप से बना हुआ है। इन पांच रूपों को नियंत्रित करने के लिए निम्न पांच अलग अलग साधन होते हैं।
1. तरंग रूप अर्थात मन को नियंत्रित करने के लिए - ध्यान।

            आत्मा भी हमारे शरीर में तरंग रूप है परंतु इसे नियंत्रित करने की कोई आवश्यकता नहीं होती न ही कोई इसे नियंत्रित कर सकता है। यह स्वतः नियंत्रित होती है, क्योंकि मन जैसी क्रिया करता है आत्मा उसी के अनुसार प्रतिक्रिया करती है।

2. उर्जा रूप अर्थात प्राण को नियंत्रित करने के लिए - प्राणायाम।

3. वायु रूप को नियंत्रित करने के लिए - आसन।

4. द्रव रूप को नियंत्रित करने के लिए - उपवास पंचकर्म आदि। इसे प्रशिक्षित आयुर्वेदिक डॉक्टर ही करवा सकते हैं।

5. ठोस रूप को नियंत्रित करने के लिए - व्यायाम।   पैदल चलना, तैरना, साइकिल चलाना सर्वोत्तम एवं सर्व सुलभ व्यायाम हैं।
यदि मनुष्य सिर्फ मन पर नियंत्रित रखना सीख ले तब भी वह पूर्ण स्वस्थ सुखी एवं दीर्धायु जीवन व्यतीत कर सकता है। मन पर नियंत्रण न रहने से बाकी चार रूपों पर नियंत्रण का प्रयास करने से कोई विशेष फायदा नहीं होगा।