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Saturday, April 14, 2012

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार -5


मन

                              मन मनुष्य के शरीर का सबसे महत्वपूर्ण भाग है इसे तीसरी आंख या छठी इंद्रिय भी कहते हैं, इसे अग्रेंजी में माइंड कहते हैं। मन ही मनुष्य के शरीर का संपूर्ण बौद्धिक संचालन करता है अर्थात यह शरीर को चलाने वाला ड्राइवर है। यह द्रव्य का तरंग रूप है और यह आत्मा के साथ गुथा हुआ रहता है एवं सारे शरीर में व्याप्त है। इसे हम शरीर की संचार प्रणाली कह सकते हैं यह आत्मा से संपर्क बनाए हुए ब्रह्मांड में कहीं भी जाने में सक्षम है इसकी गति असीमित है यह प्रकाश की गति से कई गुना तेज गति से चल सकता है यह एक सेकिंड में ब्रह्मांड के किसी भी कोने में पहुंच सकता है यदि हम विज्ञान की भाषा में कहें तो इसका तरंगदैर्ध्य अनंत है। यक्ष प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठर ने मन को सबसे तेज चलने वाला बताया था। मन के तीन भाग होते हैं।
1.चित्त, 2.बुद्धि 3.अहंकार।
                   चित्त का काम है जानना या ज्ञान प्राप्त करना, बुद्धि का काम है निर्णय करना एवं अहंकार का काम है गलत निर्णय करना या निर्णय को बदलने का प्रयास  करना। मन का अस्तित्व तब तक रहता है जब तक प्राणी जीवित है मृत्यु के बाद इसका कोई अस्तित्व नहीं रहता न ही यह कहीं स्वतंत्र अवश्था में रह सकता है क्योंकि मन एक गतिशील संचार प्रणाली का नाम है जो कि सिर्फ जीवित प्राणियों में ही रहती है। जब मन काम करना बंद कर देता है तब मनुष्य कोमा की स्थिति में चला जाता है।
                   जब हमें कोई कार्य करना होता है तब सबसे पहिले हमारे मन में उस कार्य को करने का विचार आता है जैसे हमें हाथ उपर उठाना है तब सबसे पहिले हमारे मन में हाथ उठाने का विचार आएगा इसके बाद बुद्धि निर्णय करेगी कि हाथ उठाना है या नहीं, हाथ उठाने का निर्णय कर लेने के बाद बुद्धि प्राण अर्थात उर्जा रूप को उत्तेजित करेगी उर्जा नर्व के माध्यम से हाथ उठाने के लिए आवश्यक उर्जा के साथ मस्तिष्क तक संदेश पहुंचाएगी संदेश मिलते ही मस्तिष्क हाथ उठाने के लिए आवश्यक रसायन तैयार करेगा जो हाथ की मांसपेशियों में आवश्यक खिंचाव उतपन्न कर हाथ को ऊपर उठा देंगे परंतु इतनी लम्बी प्रक्रिया सेकिंड के दसवें भाग से भी कम समय में हो जाती है। हमारे द्वारा किए जाने वाले छोटे से छोटे शारीरिक या मानसिक कार्य करने के लिए हमेशा यही प्रक्रिया दुहराई जाती है चाहे  कार्य ज्ञानेद्रियों द्वारा किया जाना हो या कर्मेद्रियों द्वारा किया जाना हो, कार्य हो जाने का संदेश भी वापिस मन तक पहुंचता है तब मन फिर हाथ को सामान्य स्थिति में लाने के लिए संदेश भेजता है। उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट होता है कि हमारे शरीर में क्रियाएं कितनी तेजी से होतीं हैं। शरीर में होने वाली रासायनिक क्रियाओं का हमें कोई पता ही नहीं  लगता। अर्थात शरीर में होने वाली स्थाई सामान्य क्रियाएं जो शरीर को क्रियाशील रखने के लिए आवश्यक हैं, जो कि आजीवन बिना रुके तेजी से शरीर में चलती रहतीं हैं, इनका हमें कोई पता नहीं चलता क्योंकि इन क्रियाओं का संचालन प्राण करता है। इसके अलावा बौद्धिक क्रियाओं का संचालन मन करता है, सामान्य क्रियाओं के अलावा बौद्धिक रूप से शरीर में होने वाली छोटी से छोटी हलचल का संदेश मन तक पहुंचता है यदि मन के रास्ते में कोई रुकावट पैदा हो जाय तो हमें शरीर में होने वाली किसी भी हलचल दर्द आदि का पता न चलेगा, अर्थात हम बेहोशी की अवश्था में पहुंच जाऐंगे। इसके रास्ते में रूकावट पैदा कर डाक्टर बड़े बड़े आपरेशन कर देते हैं। इस प्रकार मन हमारे  शरीर में ज्ञानेद्रियों कर्मेन्द्रियों सहित शरीर का बौद्धिक संचालन करता है।
                   जब बुद्धि के पास निर्णय करने के लिए विकल्प ज्यादा होते हैं तब अहंकार अपना काम करने लगता है इसे भी हम एक उदाहरण से समझते हैं मानलो दो अलग अलग व्यक्तियों को घर से रेलवे स्टेशन जाना है जो कि दस किलोमीटर दूर है एक व्यक्ति के पास रेलवे स्टेशन जाने के कई विकल्प मौजूद हैं जैसे पैदल जाना साइकिल, बस  आटो रिक्शा  टेक्सी आदि परंतु दूसरे व्यक्ति के पास  पैदल जाने के अलावा कोई विकल्प नही है तब दूसरे व्यक्ति में अहंकार कोई काम नहीं करेगा और वह तुरंत निर्णय लेकर पैदल चल देगा। परंतु पहला व्यक्ति जिसके पास कई विकल्प हैं निर्णय लेने में कुछ देर लगाएगा इसके अलावा वह तीन प्रकार से निर्णय ले सकता है पहला अपनी सामर्थ के अनुसार दूसरा सामर्थ से कम तीसरा सामर्थ से अधिक यदि वह सामर्थ सें अधिक खर्च कर जाने का निर्णय लेता है तब उसके मन में तनाव भी उतपन्न होगा। इस प्रकार मनुष्य के मन में बुद्धि और अहंकार का टकराव हमेशा होता रहता है जो कि तनाव एवं तनाव से उतपन्न होने वाली बीमारियों का कारण बनता है। बुद्धि और अहंकार हमेशा एक दूसरे को दबाने की कोशिश करते रहते हैं। गरीब एवं श्रमजीवी लोगों में अहंकार बहुत कम होता है परंतु बुद्धिजीवी एवं उच्चवर्ग में अहंकार चरम पर होता है एवं तनाव से संबंधित बीमारियां भी इन्हीं दो वर्गों में ज्यादा होतीं हैं इसी कारण आज दुनिया में जो भी निर्णय लिए जाते हैं वह प्रकृति एवं जीवन के हित में नहीं होते क्योंकि निर्णय लेने वाले व्यक्तियों में अहंकार चरम पर होता हैं। आध्यात्म के माध्यम से हम सीख सकते हैं कि निर्णय लेने के कई विकल्प मौजूद होते हुए भी अहंकार को अपना काम करने से कैसे रोका जा सकता है इसका तरीका दूसरे भाग में बताएंगे।
                       हमारे मन में जो भी विचार उठते हैं उनका भाव हमेशा हमारे चेहरे एवं आखों पर पर प्रगट होने लगता है हम किसी भी व्यक्ति के चेहरे को देखकर तुरंत बता देते हैं कि अमुक व्यक्ति प्रसन्न है, उदास है, चिंतित है, तनाव ग्रस्त है या क्रोधित है आदि, अर्थात चेहरे को देखकर मन में उतपन्न विचारों को पढ़ा जा सकता है। हम अभी उसी बदलाव को देख पाते हैं जो चेहरे पर स्पष्ट रूप से प्रगट हो जाता है सूक्ष्म रूप से प्रगट होने वाले बदलाव को हम नहीं देख सकते। पुराने समय में हमारे ऋषि मुनि इस विधि को जानते थे वे मनुष्य के अलावा चेहरे को देखकर जानवरों के विचारों को भी पढ़ लेते थे। जिस प्रकार विज्ञान ने आज कमप्यूटर की मशीनी भाषा को आम भाषा में बदल लिया है इसी प्रकार मन में उतपन्न विचारों को आम भाषा में बदला जा सकता है इससे जानवरों के विचारों को भी पढ़ा जा सकेगा, इसके लिए विज्ञान को अभी समय लगेगा क्योंकि अभी विज्ञान मन तक नहीं पहुंचा है। विज्ञान ने अभी झूठ पकड़ने वाली मशीन एवं नार्को टेस्ट आदि विधियां विकसित की हैं परंतु इन विधियों द्वारा मस्तिष्क में उतपन्न रसायनों एवं तरंगों का विश्लेषण कर परिणाम निकाले जाते हैं जो पूर्णतः विश्वासनीय नहीं है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक स्थिति अलग होती है यदि कोई व्यक्ति मन को नियंत्रित करना जानता है या अनजाने ही उसका मन नियंत्रित हो जाता है तब इन विधियों द्वारा गलत परिणाम मिल सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति सन्यासी है तब उस पर किए गए टेस्ट भी गलत परिणम दे सकते हैं। यहां सन्यासी का मतलब घर द्वार छोड़कर चले जाने वाले  आधुनिक सन्यासियों से नहीं है, जैसा कि उपर लिखा जा चुका है कि हमारे मन में उतपन्न विचारों का भाव हमारे चेहरे पर प्रगट होता रहता है, परंतु किसी व्यक्ति में यदि किसी भी अच्छी या बुरी परस्थिति में या सुख दुख में चेहरे पर कोई भाव प्रगट नहीं होते अर्थात किसी भी परस्थिति का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तब उसे सन्यासी कहा जाता है आध्यात्म के अनुसार सन्यासी की यही परिभाषा है।  ( कोमा को हिन्दी में सन्यास कहते हैं सन्यासी की उतपत्ति इसी सन्यास शब्द से हुई है। ) एक गृहस्थ व्यक्ति सन्यासी हो सकता है, हमारे जितने भी प्रसिद्ध सन्यासी ऋषि मुनि एवं धर्म संस्थापक हुए हैं उनमें ज्यादातर गृहस्थ थे। हमारे जितने भी देवता हैं वे कोई भी बिना पत्नि के नहीं हैं। ईश्वर को पाने के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग करना बिलकुल भी जरूरी नहीं है। भौतिक रूप से सन्यास धारण करने का कोई महत्व नहीं है ईश्वर को पाने के लिए मानसिक रूप से सन्यासी बनना होता है क्योंकि धर्म पूर्णतः मानसिक प्रक्रिया है। यह कार्य ग्रहस्थ जीवन में भी किया जा सकता है, दूसरे भाग में इसे और स्पष्ट करेंगे। श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियां थीं फिर भी वे ब्रह्मचारी एवं सन्यासी थे।
                     द्रव्य के पांच रूपों ( पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ) का ज्ञान प्राप्त करने के लिए  हमारे शरीर में पांच ज्ञानेद्रियां होती हैं। इन पांच रूपों के पांच अलग अलग गुण होते हैं।
1.पृथ्वी (ठोस) का गुण गंध,
2.जल (द्रव) का गुण रस (स्वाद),
3.वायु का गुण स्पर्श,
4.अग्नि का गुण रूप (दृश्य) एवं
5.आकाश का गुण शब्द (कम्पन)
                    उपरोक्त पांच रूपों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारे शरीर में निम्न पांच ज्ञानेन्द्रियां होतीं हैं।

1.गंध का ज्ञान प्राप्त करने के लिए नासिका
2.स्वाद का ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिव्हा
3.स्पर्श का ज्ञान प्राप्त करने के लिए त्वचा
4.रूप का ज्ञान प्राप्त करने लिए आंख
5.शब्द का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कान  
                 नासिका, जिव्हा, त्वचा, आंख और कान ये पांचों ज्ञानेन्द्रियां हमारे शरीर के उपरी भाग के अलावा मन में भी सूक्ष्म रूप से स्थित होती हैं इसलिए मन को छटी इंन्द्रिय या तीसरी आंख कहा जाता है। यदि शरीर मे स्थित कोई ज्ञानेन्द्रिय खराब है तब भी मनुष्य उस ज्ञानेन्द्रिय से संबंधित ज्ञान मानसिक रूप से प्राप्त कर सकता है। क्योंकि ज्ञान प्राप्त करना मन का काम है। सूरदास जन्म से अंधे थे परंतु उन्होंने सूरसागर नामक विशाल ग्रंथ की रचना की इस ग्रंथ में श्रीकृष्ण से संबंधित जिन  दृश्यों का चित्रण किया गया वैसा चित्रण आज का आंख वाला भी नहीं कर सकता। यदि मन की कार्यप्रणाली में कोई बाधा आ जाय या मन काम करना बंद कर दे तब मनुष्य मानसिक या शारीरिक कोई भी कार्य नहीं कर सकता एवं कोमा की स्थिति में चला जाता है भले ही उसकी शरीर में स्थित ज्ञानेन्द्रियां पूर्ण रूप से स्वस्थ एवं सही हों।
                   उपरोक्त विवरण के अनुसार हमारे शरीर में नाक जिव्हा त्वचा आंख और कान पांच ज्ञानेन्द्रियां होती है इनमें स्पर्श इंद्रिय सबसे महत्वपूर्ण होती है क्योंकि इसकी सहायता से ही मन सहित बाकी चार ज्ञानेन्द्रियां अपना काम करतीं हैं। यहां त्वचा का मतलब सिर्फ शरीर की उपरी त्वचा से नहीं है हमारे शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म कण का उपरी भाग स्पर्श इंद्रिय  का काम करता है अर्थात यह हमारे संपूर्ण शरीर के अंदर एवं बाहर व्याप्त है यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे शरीर के भीतरी भाग में होने वाले किसी भी दर्द या हलचल का हमें कोई पता नहीं चलता।
                   जब गंध युक्त हवा के कण हमारी ध्राण इंन्द्रिय को स्पर्श करते हैं तब हमें गंध का ज्ञान होता है, जब कोई खाने पीने की वस्तु हमारी जिव्हा का स्पर्श करती है तब हमें स्वाद का ज्ञान होता है जब कोई वस्तु हमारी  त्वचा का स्पर्श करती है तब हमें स्पर्श का ज्ञान होता है, जब कोई प्रकाश की किरण हमारी आंख के रेटीना को स्पर्श करती है तब हमें दृश्य दिखाई देता है, और जब कोई ध्वनि तरंग हमारे कान के परदे को स्पर्श करती है तब हमें आवाज का ज्ञान होता है। इस प्रकार सभी इंन्द्रियों को काम करने के लिए स्पर्श इंन्द्रिय ही सक्रिय करती है। हमारी स्पर्श इंन्द्रिय को शून्य कर डाक्टर आपरेशन कर देते है, इसे शून्य कर देने से हमें कोई दर्द महसूस नहीं होता। शरीर के किसी भाग को शून्य कर देने से उस भाग की स्पर्श इंन्द्रिय काम करना बंद कर देती है, बेहोशी की हालत में मन अस्थाई तौर से काम करना बंद कर देता है एवं कोमा की स्थिति में मन स्थाई तौर पर काम करना बंद कर देता है।
                      जब हम सोते हैं तो हमारे शरीर की स्पर्श इंन्दिय को छोड़कर शरीर में स्थित बाकी ज्ञानेन्द्रियां सो जातीं हैं सोते समय हम बिस्तर के एवं आस पास के शोरगुल के स्पर्श को आत्मसात करके सो जाते हैं सोते समय इससे तीव्र या अलग कोई स्पर्श हमारे शरीर में होता है तो हमारी नींद खुल जाती है या कोई तेज आवाज जब हमारे कान के परदे को स्पर्श करती है तब हमारी नींद खुल जाती है हमारी नींद स्पर्श इन्द्रिय की सक्रियता के कारण खुलती है न कि आवाज से, आवाज नींद खुलने के बाद सुनाई देती है। जब हमारे शरीर में स्थित ज्ञानेन्द्रियां सो जातीं हैं एवं हमारे मन में विचार आना बंद हो जाते हैं और मन स्वतंत्र हो जाता है तब यह अपनी इच्छा से इधर उधर घूमने चल देता है और हम स्वप्न देखने लगते हैं क्योंकि हमारे सोने के बाद बहुत देर बाद तक मन मे स्थित ज्ञानेन्द्रियां जागती रहती हैं इसलिए मन जहां जाता है वह दृश्य हम देखने लगते है। कभी कभी मन सोते समय भी स्वप्न में देखे गए दृश्यों के आधार पर मस्तिष्क को आदेश देने लगता है तब सोते समय हमारा शरीर भी भौतिक रूप से क्रिया करने लगता है नींद में चलना बोलना और स्वप्नदोष आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं। गहरी नींद में स्वप्न नहीं दिखते  क्योंकि गहरी नींद में मन एवं मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियां भी आराम करने लगतीं है। गहरी नींद कितनी देर बाद आती है यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह व्यक्ति कितना स्वस्थ  चिंतित या निश्चिंत है स्वस्थ एवं निश्चिंत व्यक्ति को गहरी नींद जल्दी आ जाती है। इसी प्रकार हमारे मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियां नींद खुलने के लगभग आधा घंटे पहिले जाग जातीं है इसी कारण स्वप्न अक्सर नींद लगने के थोड़ी देर बाद तक या नींद खुलने के कुछ देर पहिले आते हैं। प्रकृति में तीन गुण होते हैं।
1. सत 2. रज 3. तम।
                      सत का मतलब है ज्ञान, रज का मतलब क्रियाशीलता एवं तम का मतलब अज्ञान होता है। ब्रह्म मुहूर्त एवं सत के प्रभाव में देखे गए सपने अक्सर सत्य होते हैं, तम के प्रभाव में देखे गए स्वप्न असत्य होते हैं, सोते समय रज का प्रभाव नहीं रहता। मनुष्य की तुलना मे अलग अलग प्राणियों में कोई ज्ञानेन्द्रिय कम तो कोई अधिक सक्रिय होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति में भी ज्ञानेन्द्रियों की सक्रियता अलग अलग होती है इसलिए सभी की बुद्धि या ज्ञान को ग्रहण करने की क्षमता एक जैसी नहीं होती। सभी प्राणियों में पांचों ज्ञानेन्द्रियां होतीं हैं इनसे संवंधित ज्ञान को ग्रहण करना एवं एक दूसरे में ज्ञान का आदान प्रदान करना सभी प्राणी जानते हैं।
                     विज्ञान मस्तिष्क को शरीर का संचालन करने वाला प्रमुख अवयय मानती है परंतु बिना मन और प्राण के मस्तिष्क कुछ नहीं कर सकता प्राण के बिना मस्तिष्क की मृत्यु हो जाती है, प्राण के बिना मस्तिष्क एक सेकिंड भी जीवित नहीं रह सकता। यदि मस्तिष्क ही शरीर का संचालन करने वाला प्रमुख अवयय होता तो विज्ञान ने अब तक मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली होती। मस्तिष्क एक जड़ तत्व है इसे चेतन तत्व मन और प्राण मिलकर संचालित करते हैं। हमारा मस्तिष्क सिर्फ एक रासायनिक प्रयोगशाला है और यह मन से प्राप्त निर्देशों के अनुसार ही काम करता है। हमारे मस्तिष्क की कार्य प्रणाली लगभग कमप्यूटर के सी पी यू के समान ही होती है। कमप्यूटर में पावर सिस्टम, मदखोर्ड, सी पी यू, रेम, हार्ड डिस्क एवं एक्सटरनल डिवाइस (सी डी रोम) होते है। यदि हम अपने शरीर की कमप्यूटर से तुलना करें तब हमारा शरीर  मदर वोर्ड है, प्राण पावर सिस्टम है, मस्तिष्क सी पी यू है, हमारी याददास्त रेम है एवं ज्ञानेन्द्रियां एक्सटरनल डिवाइस हैं। हमारे मस्तिष्क में हार्ड डिस्क जैसी कोई चीज नहीं होती जहां कि डाटा स्टोर कर के रखा जा सके चूंकि विज्ञान का मानना है कि हमारे मस्तिष्क में असीमित स्टोरेज क्षमता होती है यदि ऐसा होता तो हम पढ़ी सुनी या देखी हुई चीज कभी नहीं भूलते क्योंकि फिर हम किसी भी चीज को उसी तरह देख सुन  लेते जैसे कि हार्डडिस्क में रखी हुई फाइल को देख सुन लेते हैं। स्टोरेज क्षमता आत्मा में होती है न कि मस्तिष्क में, चूंकि आत्मा मस्तिष्क सहित हमारे संपूर्ण शरीर में व्याप्त है। हमारी आत्मा में ब्रह्मांड की समस्त क्रिया प्रणाली एवं आदि काल से अब तक की समस्त जानकारियां बीज रूप में स्थित होतीं हैं परंतु हमारे मन की गति बाहर अर्थात संसार की ओर होने के कारण हम इन्हें नहीं जान पाते चूंकि इस जन्म में जो भी जानकारी हमारी आत्मा तक पहुंचेगी वह हमें जीवन भर याद रहेगी क्योंकि वह हमारे मन के माध्यम से आत्मा तक पहुंची है, आत्मा तक जानकारी तभी पहुंच पाती है जब उसे पूर्ण एकाग्रता के साथ ग्रहण किया जाय जो चीज पूर्ण एकाग्रता के साथ ग्रहण नहीं की जाती उसे हम कुछ समय बाद भूल जाते हैं। पिछले जन्मों की जानकारी इसलिए याद नहीं रहती क्योंकि मृत्यु के साथ मन भी नष्ट हो जाता है। इस जन्म के पहिले की जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें अपनी ज्ञानेन्द्रियों को अंतरमुखी बनाना होता है अर्थात मन की गति को उल्टी दिशा में आत्मा की ओर मोड़कर मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियों को सक्रिय करना  होता है  इसका तरीका दूसरे भाग में बताऐंगे।
                       नैनो तकनीक विकसित होने के बाद हमारे शरीर में ऐसे साप्टवेयर लगाए जा सकेंगे जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों को हार्डडिस्क एवं कमप्यूटर स्क्रीन जैसी सुविधा उपलब्ध करा देंगे, परंतु इससे मनुष्य की बौदिवक एवं शारीरिक क्षमता धीरे धीरे समाप्त होती जाएगी आने वाले समय में मनुष्य कमप्यूटर पर उसी प्रकार निर्भर हो जाएगा जिस प्रकार आज बिजली टेलीफोन आदि पर निर्भर है अर्थात इसके बिना वह कुछ नहीं कर सकेगा। आगे आने वाले समय में मनुष्य हवा पानी भोजन सहित सभी कार्यो के लिए कमप्यूटर पर निर्भर हो जायगा।
                      विज्ञान अभी यह प्रमाणित नहीं कर पाया कि हमारा मन शरीर के बाहर ब्रह्मांड में कहीं भी जा सकता है जबकि धर्मिक ग्रथों में जगह जगह यह उल्लेख किया गया है। टेलीपैथी एवं सम्मोहन इसका एक अच्छा उदाहरण है इस विधि को विकसित कर लेने के बाद हम कहीं दूर बैठे व्यक्ति को कोई भी आदेश देकर काम करा सकते हैं। यदि हमारा मन शरीर के बाहर नहीं जाता होता एवं हमारे मस्तिष्क में ही पढ़ी सुनी देखी हुईं चीजें स्टोर हो जातीं होतीं तो फिर स्वप्न में हम ऐसी कोई चीज नहीं देख सकते थे जो हमने पहिले कभी न देखी हो, (या इस प्रकार कह सकते हैं कि हम स्वप्न ही नहीं देख पाते) न तो हम ऐसी कोई कल्पना कर पाते जो हमने देखी सुनी या पढ़ी न हो, न ही वैज्ञानिक कोई आविष्कार कर पाते, न ही मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर पाता। यह लेख भी पढ़ी सुनी बातों के आधार पर नहीं लिखा जा रहा है। टाइटेनिक जहाज के डूबने के पहिले उसके डूबने की अक्षरसः बिलकुल सही कहानी लिख दिया जाना इस बात को प्रमाणित करता है कि मन शरीर से बाहर कहीं भीं किसी भी आने वाले या बीते हुए समय में जा सकता है। इसे आगे सापेक्षवाद के प्रकरण में गणित के माध्यम से और स्पष्ट करेंगे।
                       हमारा मन इंटरनेट की तरह काम करता है जब हमें कोई जानकारी चाहिए होती है तब हम इंटरनेट के माध्यम से हम उस बेवसाइट पर जाते हैं एवं वहां उपलब्ध जानकारी हम अपने कमप्यूटर स्क्रीन पर देख लेते हैं परंतु हमारे शरीर में कमप्यूटर स्क्रीन जैसी कोई व्यवश्था नहीं होती हम याददास्त (मेमोरी) की सहायता से ही उसे जानने की कोशिश करते हैं। यदि हमारे मन में ताजमहल का विचार आता है तब हमारा मन वहां जाता है जहां हमने भौतिक रूप से  ताजमहल को या इसकी तस्वीर देखी थी फिर याददास्त के सहारे मन इसे देखने की कोशिश करता है याददास्त के आधार पर हम इसे कितनी बारीकी से देख सकते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि भौतिक रूप से देखते समय हमने इसे कितनी एकाग्रता से देखा था। यदि हमने कोई किताब पढ़ी है और बाद में याददास्त के माध्यम से किताब को देखे बिना उसे दुहराने की कोशिश करते हैं तब हम उसे बिलकुल वैसा ही नहीं दोहरा पाते। अलग अलग व्यक्तियों की याददास्त की क्षमता अलग अलग होती है, यह क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि किताब को पढ़ते समय वह उस पर कितना एकाग्र था, एवं उसकी ज्ञानेन्द्रियां कितनी संवेदनशील हैं यदि वह सौ प्रतिशत एकाग्र था तब याददास्त के आधार पर वह उस विषय को ज्यों का त्यों दुहरा देगा, यदि वह पढ़ते समय बिलकुल एकाग्र नहीं था तब उसे कुछ भी याद नहीं रहेगा। सौ प्रतिशत एकाग्रता का मतलब होता है कि हमारा पूरा ध्यान उसी कार्य पर हो जिसे हम कर रहे हैं जिस प्रकार कि अर्जुन को निशाना लगाते वक्त चिड़िया की आंख के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।
                                              इसी प्रकार हमारे जीवन में रोज समान्य तौर पर घटित होने वाली घटनाऐं हमें याद नहीं रहतीं परंतु कुछ घटनाऐं ऐसी भी होतीं हैं जो जीवन भर कभी नहीं भूल पाते क्योंकि इन्हें हमने पूरी एकाग्रता के साथ महसूस किया होता है, यह हमारी आत्मा तक पहुंचकर उसमें स्थित हो जातीं हैं जब कोई भी कार्य पूर्ण एकाग्रता से किया जाता है तभी उसका प्रभाव आत्मा तक पहुंचता है। एक बार आत्मा तक पहुंच जाने के बाद कोई चीज भूल नहीं पाते। जब मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है तब इसे कई जन्मों तक नहीं भूलता।  जब हम ऐसी कोई चीज  को जानना चाहते हैं जो हमने पहिले कभी देखी सुनी या पढ़ी न हो तब मन को इसे खोजने में समय लगता है इसके लिए हमें लम्बे समय तक ध्यान मग्न या एकाग्र होकर गहराई में जाकर निरंतर अभ्यास के द्वारा उसे खोजना होता है तब हम उसे जान पाते हैं इसी आधार पर मनुष्य दुनियां में नई खोज या नया आविष्कार करता है। ज्ञान प्राप्त करने का ध्यान या एकाग्रता से सीधा संबंध है, ध्यान के माध्यम से ही आत्मज्ञान एवं ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया जाता है इसका तरीका दूसरे भाग में बताएंगे।
                      पूरी एकाग्रता से एक लक्ष्य पर केंद्रित होने की कला को ध्यान कहते हैं। ध्यान के माध्यम से हम किसी भी स्थान से किसी भी किताब को उसी तरह पढ़ सकते हैं जिस प्रकार कि कमप्यूटर स्क्रीन पर वेव पेज को खोलकर पढ़ लेते हैं भले ही वह किताब हमने पहिले कभी न पढ़ी हो, इसके लिए हमें ध्यान को सिद्ध करके मन में स्थित ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता को विकसित करना होता है, परंतु आज इस भौतिकवाद के युग में मनुष्य के लिए यह काम करना बहुत कठिन है, कभी अनायास ही संयोगवश हमारा मन ऐसा कर सकता है जैसा कि उपर टाइटेनिक का उदाहरण दिया गया है परंतु ऐसा दुनिया में संयोगवश कभी कभी ही होता है, ध्यान के माध्यम से मन मे स्थित ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता विकसित कर लेने के बाद मनुष्य अपनी इच्छानुसार कभी भी ऐसा कर सकता है। यह भी टेली पैथी के समान प्रक्रिया है, संजय का धृतराष्ट्र को महाभारत का आंखों देखा हाल सुनाना इसी प्रक्रिया पर आधारित है। ध्यान के माध्यम से हमारा मन ब्रह्मांड में कहीं भी जाकर भूत एवं भविष्य की कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकता है, इसके लिए शरीर सहित कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। मन सिर्फ ज्ञानेन्द्रियों से संबंधित ज्ञान (अर्थात गंध रस स्पर्श रूप एवं शब्द) की ही जानकारी प्राप्त कर सकता है इसमें भौतिक रूप से कोई छेड़छाड़ या पखिर्तन नहीं किया जा सकता क्योंकि मन के साथ कर्मेन्द्रियां नहीं होती ये हमारे शरीर में स्थित हैं जबकि ज्ञानेन्द्रियां शरीर के अलावा मन में भी स्थित होतीं हैं।
                   हमारा मन एक बाहय् संचार प्रणाली है परंतु इसके अलावा हमारे शरीर में एक आंतरिक संचार प्रणाली भी होती है अभी विज्ञान को इसकी कोई जानकारी नहीं है धार्मिक ग्रथों में इसे नारद के नाम से जाना जाता है एवं इन्हें ब्रह्मा का पुत्र कहा जाता है। हमारे शरीर में क्या क्रिया हो रही है एवं शरीर में किस प्रकार के गुणों की कमी या वृद्धि हो रही है इसकी जानकारी आत्मा में स्थित देवताओं (संबंधित गुणों) तक पहुंचाना इसका काम है इसी जानकारी के आधार पर आत्मा प्रतिक्रिया करती है जिसका परिणाम मनुष्य को कर्मफल के रूप में भुगतना होता है।
                                                  हमारे शरीर में मन और आत्मा ही दो प्रमुख तत्व हैं जो हमारे शरीर सहित हमारे रहन सहन एवं जीवन का भी संचालन करते हैं यही हमारे वंशानुगत गुण और हमारे जन्मों का भी निर्धारण करते हैं। शरीर में मन क्रिया करता है एवं इसके विपरीत आत्मा प्रतिक्रिया करती है जिससे मनुष्य कर्मफल के रूप में अपने जीवन में सुख दुख प्राप्त करता है, हमारी शारीरिक संरचना स्वास्थ एवं बुद्धि भी इसी प्रतिक्रिया पर आधारित है । मनुष्य के शरीर में आत्मा ही प्रमुख चेतन जीव है इसलिए फल भी आत्मा को ही भुगतना होता है शरीर तो नष्ट हो जाता है और इसके साथ ही मन भी नष्ट हो जाता है परंतु आत्मा को मनुष्य जीवन में मन द्वारा किए गए कर्मों का फल लम्बे समय तक भुगतना होता है। प्रतिक्रिया स्वयं आत्मा द्वारा की जाती है परंतु फिर भी यह उस परिणाम से स्वयं को नहीं बचा सकती क्योंकि जैसा उपर लिखा जा चुका है कि आत्मा की प्रतिक्रिया क्रिया के आधार पर बिलकुल निर्धारित होती है उसके विपरीत अपनी इच्छानुसार यह कुछ नहीं कर सकती। जिस प्रकार कि हाइड्रोजन के दो परमाणु एवं आक्सीजन के एक परमाणु की प्रतिक्रिया स्वरूप जल का एक अणु ही बनता है इसके सिवाय और कुछ नहीं बन सकता इसी प्रकार आत्मा की प्रतिक्रिया निश्चित होती है। शरीर की मृत्यु के साथ मन भी नष्ट हो जाने के कारण मनुष्य को पूर्व जन्म का कुछ भी याद नहीं रहता परंतु फिर भी किसी किसी को पूर्व जन्म की याद आ जाती है ऐसा कभी कभी समाचार पत्र के माध्यम से सुनने को मिल जाता है परंतु इसका कारण दूसरा होता है, आगे सापेक्षवाद के प्रकरण में इसे स्पष्ट करेंगे।  जब विज्ञान आत्मा तक पहुंचेगा तब यह सब विज्ञान को भी स्पष्ट हो जाएगा।
                                                  मनुष्य के अलावा अन्य किसी भी प्राणी की आत्मा को कोई कर्मफल नहीं भुगतने होते हैं क्योंकि मनुष्य के अलावा सभी प्रणियों की योनि कर्म प्रधान होती है और ये ईश्वर द्वारा निश्चित कर्म ही कर सकते हैं इसलिए इनके कोई कर्मफल नहीं बनते जबकि मनुष्य की योनि ज्ञान प्रधान है और वह कोई भी अच्छे बुरे कर्म कर सकता है, ऊपर धर्म के प्रकरण में दी गई धर्म की परिभाषा के विपरीत किए गए कर्मों को बुरे कर्म या पाप कहा जाता है। इसी के अनुसार आत्मा अन्य प्राणियों की योनि में उस प्राणी के कर्म के विपरीत मनुष्य जीवन में किए गए एक कर्मफल को नष्ट करती है। आध्यात्म के माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर मनुष्य भी निष्काम कर्म कर सकता है निष्काम कर्म के कोई कर्मफल नहीं बनते जैसे कि उपर लिखा जा चुका है कि श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियां होते हुए भी वे ब्रह्मचारी एवं सन्यासी थे। निष्काम कर्म करने का तरीका दूसरे भाग में बताऐंगे।
                    हमारे शरीर में मन एक बिना लगाम के घोड़े की तरह है और आत्मा इसका सवार है। साधारण अवश्था में बिना लगाम के यह अपनी इच्छा अनुसार आत्मा को इधर उधर घसीटता रहता है और आत्मा इसके द्वारा किए गए कर्मों का फल भोगती रहती है। जब इसकी लगाम आत्मा के हाथ में आ जाती है तब यह सही रास्ते पर चलने लगता है। परंतु आत्मा को अपनी लगाम थमाने का काम मन को स्वयं ही करना होता है अर्थात स्वयं पर लगाम लगाकर आत्मा को थमाना होती है यह काम कोई दूसरा नहीं कर सकता यह काम सिर्फ ज्ञान के द्वारा ही सम्भव हो पाता है। यह काम मनुष्य के लिए सबसे कठिन है क्योंकि वह दूसरे पर तो आसानी से शासन कर सकता है परंतु स्वयं पर शासन करना उसके लिए बहुत कठिन काम है। जब तक हम मन पर नियंत्रण नहीं प्राप्त कर लेते तब तक धर्म या आध्यात्म के क्षेत्र में कुछ नहीं कर सकते क्योंकि भौतिक रूप से धर्म या आध्यात्म का  कोई महत्व नहीं है। मन पर नियंत्रण प्राप्त करने के तरीके को ध्यान कहते हैं, ध्यान से ही मन पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। मन के वारे में कहा गया है कि

           मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
           मन से ही तो पाइए, पराब्रह्म की प्रीत।।

                  गीता में श्रीकृष्ण के उपदेश का भाव यही है कि "मन एव मनुष्यानां कारणं बंध मोक्षः"। अर्थात मन ही मनुष्य के शरीर में बंधन एवं मोक्ष का कारण हैं। मन का ज्ञान से सीधा संबंध है अतः ज्ञान के वारे में जान लेना उचित होगा।

5 comments:

  1. अति सुन्दर प्रस्तुति हे़तु आपका आभार !जय श्री राम, जय माता दी

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  2. बहुत विस्तृत है .मैंने इसे अपनी फेसबुक पर डाल रखा है और मित्रों से आग्रह किया है कि इसे पढ़े बिना like न करे,पर उत्साह जनक प्रतिक्रियाएं नहीं प्राप्त हुईं. कारण साफ है कि आलेख गहन ,गंभीर और बोझिल है. कुछ सरल ढंग से लिखा जावे .हिज्जे की त्रुटियाँ भी हैं और कुछ शास्त्रों में वर्णित ज्ञान को 'लकीर के फ़क़ीर' बनकर प्रस्तुत किया गया है. उदाहरण ही दें तो ३३ कोटि का जहाँ जिक्र है उसका कोई आधार नहीं ई. लगता है यह संख्या उस समय की अवादी होगी.

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  3. साधुवाद मान्यवर......अति सुन्दर.....रविवार को पूरा पढूंगा.....

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  4. भाषा कही कहीं कुछ क्लिष्ठ होने के कारण समझ से परे है आर्टिकल वैसे जो समझ में आया है अच्छी प्रस्तुति दी है अगर इसे कुछ खण्डों मे विभाजन कर दिया जाता तो एक तरह से सरलार्थ मे परिवर्तित हो जाता।

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