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Tuesday, November 8, 2011

आध्यात्म का वैज्ञानिक आधार-4


ज्ञान

                   ज्ञान की उतपत्ति ईश्वर से मानी गई है, जिस प्रकार ईश्वर अमर है उसी प्रकार ज्ञान भी अमर है मानव जाति एवं ब्रह्मांड का अंत हो जाने पर भी ज्ञान का अंत नहीं होता, ज्ञान आत्मा में स्थित है एवं आत्मा की उतपत्ति ईश्वर से होती है। ज्ञान दो प्रकार का होता है। 

 1. यर्थात ज्ञान

2. मिथ्या ज्ञान

                   इन दोनों को क्रमशः विद्या और अविद्या, या ज्ञान और अज्ञान शब्द से संबोधित करते हैं इसकी  यह विशेषता है कि जब ज्ञान कम होता है तब अज्ञान बढ़ता है और जब अज्ञान कम होता है तब ज्ञान बढ़ता है। आध्यात्मिक शिक्षा यर्थात ज्ञान पर आधारित है एवं आधुनिक शिक्षा मिथ्या ज्ञान पर आधारित है। यहां ज्ञान का मतलब स्कूली या किताबी ज्ञान से नहीं है। पढ़ना लिखना एक कला है जबकि ज्ञान ईश्वरीय चेतना है, यह मनुष्य की खोज नहीं, मनुष्य सहित सभी प्राणियों वनस्पतियों एवं चेतन द्रव्य में भी ज्ञान होता है परंतु मनुष्य को छोड़कर बाकी सब ईश्वर द्वारा निर्धारित कार्य ही कर सकते हैं। एक अनपढ़ व्यक्ति ज्ञानवान हो सकता है एवं एक पढ़ा लिखा व्यक्ति अज्ञानी हो सकता है। ज्ञान उसे कहते हैं जिसके अनुसार किसी भी परस्थिति में मनुष्य पूर्ण स्वस्थ सुखी एवं निश्चिंत होकर दीर्धायु जीवन व्यतीत करता है, अज्ञान वह है जिसके अनुसार मनुष्य नाना प्रकार के दुख बीमारियों अभाव, भय एवं चिंताओं से ग्रस्त होकर जीवन व्यतीत करता है, फिर चाहे वह धनवान हो या निर्धन, पढ़ा लिखा हो या अनपढ़। यर्थात ज्ञान भी दो प्रकार का होता है।

1. आत्म ज्ञान

2. ब्रह्मज्ञान।

                   आत्म ज्ञान के द्वारा हम ईश्वर से साक्षात्कार कर स्वयं के बारे में सब कुछ जान लेते हैं एवं मोक्षप्राप्ति का तरीका समझ लेते हैं। ब्रह्म ज्ञान के द्वारा ईश्वर एवं ब्रह्मांड की संपूर्ण क्रिया प्रणाली के बारे में ज्ञान प्राप्त हो जाता है ये भूत एवं भविष्य को भी देख सकते हैं एवं इच्छा शक्ति से कोई भी कार्य कर सकते हैं। एक युग में बहुत कम लोग ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर पाते हैं, ब्रह्मज्ञानी व्यक्ति को ईश्वर का अवतार माना जाता है। कलयुग में ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन काम है इस प्रक्रिया को जानने वाला अब कोई नहीं है, अब वही ब्रह्म ज्ञानी हो सकता है जिसमें जन्म से ही ब्रह्मज्ञानी के लक्षण हों।  महाभारत काल में सब कुछ नष्ट हो गया इसके बाद इस विज्ञान को जानने वाला कोई नहीं बचा, कहा जाता है कि इस विज्ञान को जानने वाला अश्वश्थामा बच गया था परंतु बाद में उसका कोई पता नहीं लगा और यह विद्या यहीं पर समाप्त हो गई इस ज्ञान के नष्ट हो जाने के कारण ही कलयुग का जन्म हुआ एवं मनुष्य ज्ञान के अभाव में भौतिक साधनों की ओर आकर्षित होने लगा, जोकि आज अपने चरम पर है। आत्मज्ञान नियमित अभ्यास के द्वारा आज भी प्राप्त किया जा सकता है इसका तरीका दूसरे भाग में बताऐंगे।

                       एक तीसरे प्रकार का भी ज्ञान होता है जिसे हम किताबी ज्ञान कहते हैं, आज दुनिया में इसी का प्रचलन सबसे अधिक है। इसे आम भाषा में नकल करना कहते हैं यह सबसे आसान तरीका है। चूंकि दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति बचपन से ही सब कुछ नकल करके ही सीखता है। परंतु पुराने समय में जब बालक शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता था तब उसे स्वयं की बुद्धि विकसित करने अर्थात आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए भी शिक्षा दी जाती थी परंतु अब ऐसा नहीं है अब मनुष्य को सिर्फ दूसरे ज्ञानी के ज्ञान का अनुसरण करके ही आगे बढ़ने की शिक्षा दी जाती है। इसका प्रचलन धर्म एवं विज्ञान दोनों ही क्षेत्रों में है। विज्ञान के क्षेत्र में तो लोग नए आविष्कार कर लेते हैं परंतु आज घर्म के क्षेत्र में ऐसा बहुत कम लोग ही कर पाते हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में न तो किसी सरकार का कोई नियंत्रण है न ही इसके कोई माप दंड तय हैं एवं अब धर्म का वास्तविक स्वरूप भी बदल चुका है।

                       प्रत्येक क्षेत्र में विद्वानों के विरोधी मत मिल जाते हैं इससे मनुष्य हमेशा भ्रमित रहता है एवं वह किसी भी ज्ञान के वारे में ठोस धारणा नहीं बना पाता इसका असर उसके निर्णय लेने की क्षमता पर पड़ता है जिससे निर्णय के लिए ज्यादा विकल्प होने के कारण उसे सही निर्णय करने में समय लगता है या सही निर्णय नहीं कर पाता, और सही निर्णय न कर पाने की स्थिति में वह दूसरे व्यक्ति पर निर्भर हो जाता है या फिर गलत निर्णय के कारण वह हमेशा दुख एवं कष्ट भोगता है। आध्यात्मिक शिक्षा का पहला चरण ठोस धारणा बनाने का होता है ठोस धारणा तब तक नहीं बनती जब तक कि मनुष्य स्वयं अपनी ज्ञानेिन्द्रयों से उसका परीक्षण नहीं कर लेता। इसका वर्णन दूसरे भाग में करेंगे। आत्मज्ञान से मनुष्य सही निर्णय लेने की क्षमता प्राप्त कर लेता है यह मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है इसी क्षमता के कारण वह स्वस्थ सुखी एवं दीर्धायु जीवन व्यतीत कर पाता हैं।

                  आधुनिक शिक्षित पीढ़़ी स्वयं को पुरानी पीढ़ी से ज्यादा बुद्धिमान मानती हैं यह उनकी गलत धारणा है क्योंकि ज्ञान का हमेशा हास् होता है। जितना गुरु जानता है शिष्य का ज्ञान हमेशा उससे कम ही रहेगा जब तक कि शिष्य ईश्वर तक पहुंचकर आत्म ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता आत्मज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद ही शिष्य गुरु से आगे बढ़ सकता है इसके बिना नहीं। ( यहां यह बात ध्यान रखने योग्य है कि जैसा उपर लिखा गया है कि ज्ञान का कभी अंत नहीं होता परंतु ज्ञान के दो प्रकार होते हैं ज्ञान और अज्ञान इसमें यदि ज्ञान कम होता है तब अज्ञान बढ़ता है और अज्ञान कम होता है तब ज्ञान बढ़ता है अर्थात ज्ञान के हास् होने का मतलब है अज्ञान का बढ़ना )। प्रत्येक आत्मज्ञान प्राप्त करने वाले व्यक्ति को एक अलग क्षेत्र में ही ज्ञान प्राप्त होता है, वह जिस उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ता है उसे उसी क्षेत्र में ज्ञान प्राप्त होता है क्योंकि प्रत्येक रास्ता ईश्वर तक जाता है। इसमें सांसारिक सुख सुविधाओं का उद्देश्य शामिल नहीं है क्योंकि इसका रास्ता उल्टी दिशा में जाता है एवं इस पर चलकर मनुष्य ईश्वर से दूर होकर भौतिकवाद की ओर बढ़ता जाता है। आधुनिक शिक्षा इसी रास्ते पर चल रही है, आधुनिक शिक्षा प्रणाली में आत्मज्ञान प्राप्त करने का कोई प्रावधान नहीं है इसलिए पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान का हास् होता चला जा रहा है। आज नई पीढ़ी की मानसिकता विकृत होती जा रही है यह सभी समझ रहे हैं और इसका परिणाम भी भुगत रहे हैं। आधुनिक शिक्षा पद्यति में आध्यात्मिक शिक्षा का शामिल न होना इसका प्रमुख कारण है। पुरानी पीढ़ी का कहना है कि नई पीढ़ी गलत रास्ते पर चल रही है परंतु पुरानी पीढ़ी का यह कथन बिलकुल गलत है, इसके लिए पुरानी पीढ़ी ही दोषी है क्योंकि नई पीढ़ी का निर्माण पुरानी पीढ़ी ही करती है यदि पुरानी पीढ़ी स्वयं को बदलती है तब नई पीढ़ी अपने आप बदल जाएगी। नई पीड़ी को भी यह याद रखना चाहिए कि एक दिन वह भी पुरानी पीड़ी में बदल जाएगी। मनुष्य हमेशा दूसरे को बदलना चाहता है परंतु वह स्वयं को बदलने का प्रयास कभी नहीं करता यदि वह स्वयं को बदलेगा तब दूसरे अपने आप बदल जाऐंगे। 

                       आज दुनियां में किसी भी देश की सरकार का धार्मिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा पर कोई नियंत्रण नहीं है न ही इसके कोई मापदंड तय हैं, इसे धर्म के ठेकेदारों के भरोसे छोड़ दिया गया है इन ठेकेदारों ने घर्म को व्यवसाय, ठगी एवं समाज में साम्प्रदायिकता फैलाने का साधन बना लिया है क्योंकि ये धर्म के ठेकेदार भी भौतिकवाद से अछूते नहीं हैं। समाज को बदलने का एक ही तरीका होता है और वह है हमारी शिक्षा पद्यति यदि आज कोई नई शिक्षा पद्यति लागू की जाती है तब इसका असर लगभग सौ वर्ष बाद ही देखने को मिलता है। सिर्फ शिक्षा पद्यति ही लंबे समय में मनुष्य की मानसिकता को बदल सकती है अन्य कोई भी तरीका मनुष्य की मानसिकता को नहीं बदल सकता। पुराने समय में दुनिया में धार्मिक आध्यात्मिक एवं राजनैतिक शिक्षा ही प्रमुख रूप से दी जाती थी आध्यात्मिक शिक्षा के अंतरगत संपूर्ण विज्ञान आ जाता था। आधुनिक शिक्षा पद्यति में नैतिक शिक्षा का भी कोई प्रावधान नहीं है, आज भौतिकवाद एवं व्यवसाय को बढ़ाने से संबंधित शिक्षा ही दी जाती है एवं आधुनिक विज्ञान भी पूर्ण रूप से इसी के लिए काम करता है। यह शिक्षा पद्यति लगभग 400 वर्ष पूर्व लार्ड मैकाले द्वारा शूरू की गई थी जो आज पूरी दुनिया में मनुष्य की मानसिकता को पूर्ण रूप से भौतिकवाद की ओर बदल चुकी है। यदि आज आध्यात्मिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है तब एक लम्बे समय बाद लोगों में जागरूकता आ जायगी एवं फिर लोग इन धर्म के ठेकेदारों एवं पूंजीपतियों या अन्य किसी के बहकावे में नहीं आएंगे। ज्ञान की बातें पढ़ने सुनने सुनाने से मनुष्य पर कोई खास फर्क नहीं पढ़ता जब तक कि वह अनुशासन में रहकर लम्बे समय तक इसका अभ्यास न करे वैसे भी दुनिया में रोज हजारों ज्ञानी प्रवचन करते हैं एवं लाखों किताबें उपलब्ध हैं तथा करोड़ों श्रोता रोज सुनते एवं पढ़ते हैं परंतु फिर भी मनुष्य की मानसिकता पर कोई खास प्रभाव नहीं पढ़ता बहुत कम लोग ही पढ़ सुनकर अपनी जीवन शैली को बदल पाते हैं परंतु फिर भी अपने विचार नहीं बदल पाते जबकि जीवन शैली को बदलने की अपेक्षा विचारों को बदलना ज्यादा जरूरी है इसके लिए संसार में आसक्ति को समाप्त कर लंबे समय तक निश्चत तरीके से नियमित अभ्यास जरूरी है इसका तरीका दूसरे भाग में बताएंगे।

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